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इन्द्रा॑कुत्सा॒ वह॑माना॒ रथे॒ना वा॒मत्या॒ अपि॒ कर्णे॑ वहन्तु। निः षी॑म॒द्भ्यो धम॑थो॒ निः ष॒धस्था॑न्म॒घोनो॑ हृ॒दो व॑रथ॒स्तमां॑सि ॥९॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indrākutsā vahamānā rathenā vām atyā api karṇe vahantu | niḥ ṣīm adbhyo dhamatho niḥ ṣadhasthān maghono hṛdo varathas tamāṁsi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्रा॑कुत्सा। वह॑माना। रथे॑न। आ। वा॒म्। अत्याः॑। अपि॑। कर्णे॑। व॒ह॒न्तु॒। निः। सी॒म्। अ॒त्ऽभ्यः। धम॑थः। निः। स॒धऽस्था॑त्। म॒घोनः॑। हृ॒दः। व॒र॒थः॒। तमां॑सि ॥९॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:31» मन्त्र:9 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:30» मन्त्र:4 | मण्डल:5» अनुवाक:2» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब यन्त्रकलाविषय शिल्पकर्म को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अध्यापको और उपदेशको ! जैसे (इन्द्राकुत्सा) बिजुली और बिजुली का आघात (रथेन) वाहन से (वहमाना) प्राप्त कराते हुए वर्त्तमान हैं वा विद्वान् जन (कर्णे) करते हैं जिससे उसमें (वाम्) आप दोनों को (आ, वहन्तु) पहुँचावें वैसे (अत्याः) निरन्तर चलनेवाले घोड़े (अपि) भी सब को प्राप्त कराने को समर्थ होते हैं और जो बिजुली और अग्नि (अद्भ्यः) जलों से (निः, धमथः) शब्द करते हैं तो वे दोनों (सधस्थात्) तुल्य स्थान से (सीम्) सब प्रकार प्राप्त कराते और जो (हृदः) हृदयों के सदृश प्रिय (मघोनः) धनाढ्य पुरुषों का (निः) अत्यन्त (वरथः) स्वीकार करते हैं तो सुख से (तमांसि) अन्धकारों को हटाने को समर्थ होओ ॥९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जो अग्नि और जल का संयोग कर शब्द कर और भाफ से यन्त्र कलाओं को ताड़ित करके वाहनादिकों को चलावें तो आप अपने को और मित्रों को धन से युक्त करके दुःखों के पार जावें और अन्यों को भी पार करें ॥९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ यन्त्रकलाविषयं शिल्पकर्माह ॥

अन्वय:

हे अध्यापकोपदेशकौ ! यथेन्द्राकुत्सा रथेन वहमाना स्तः विद्वांसः कर्णे वामा वहन्तु तथाऽत्या अपि सर्वान् वोढुं शक्नुवन्ति यदि विद्युदग्नी अद्भ्यो निर्धमथस्तर्हि तौ सधस्थात् सीमावहतो यदि हृदो मघोनो निर्वरथस्तर्हि सुखेन तमांसि गमयितुं शक्नुयातम् ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्राकुत्सा) इन्द्रश्च कुत्सश्चेन्द्राकुत्सौ विद्युदाघातौ (वहमाना) प्रापयन्तौ (रथेन) यानेन (आ) (वाम्) युवयोः (अत्याः) सततं गामिनोऽश्वाः (अपि) (कर्णे) कुर्वन्ति येन तस्मिन् (वहन्तु) गमयन्तु (निः) नितराम् (सधस्थात्) सह स्थानात् (मघोनः) धनाढ्यान् (हृदः) हृद इव प्रियान् (वरथः) स्वीकुरुथः (तमांसि) रात्रीः ॥९॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यद्यग्निजलसंयोगं कृत्वा सन्धम्य वाष्पेन यन्त्रकलाः संहृत्य यानादीनि चालयेयुस्तर्हि स्वयं सखींश्च धनाढ्यान् कृत्वा दुःखेभ्यः पारं गच्छेयुर्गमयेयुर्वा ॥९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! अग्नी व जल यांचा संयोग करून वाफेचा यंत्राला मारा करून वाहन इत्यादी चालवा व तुम्ही स्वतः आणि मित्रांनाही धन प्राप्त करून देऊन दुःख नष्ट करा. ॥ ९ ॥