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अन॑वस्ते॒ रथ॒मश्वा॑य तक्ष॒न्त्वष्टा॒ वज्रं॑ पुरुहूत द्यु॒मन्त॑म्। ब्र॒ह्माण॒ इन्द्रं॑ म॒हय॑न्तो अ॒र्कैरव॑र्धय॒न्नह॑ये॒ हन्त॒वा उ॑ ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

anavas te ratham aśvāya takṣan tvaṣṭā vajram puruhūta dyumantam | brahmāṇa indram mahayanto arkair avardhayann ahaye hantavā u ||

पद पाठ

अन॑वः। ते॒। रथ॑म्। अश्वा॑य। त॒क्ष॒न्। त्वष्टा॑। वज्र॑म्। पु॒रु॒ऽहू॒त॒। द्यु॒ऽमन्त॑म्। ब्र॒ह्माणः॑। इन्द्र॑म्। म॒ह॑यन्तः। अ॒र्कैः। अव॑र्धयन्। अह॑ये। हन्त॒वै। ऊँ॒ इति॑। ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:31» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:29» मन्त्र:4 | मण्डल:5» अनुवाक:2» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पुरुहूत) बहुतों से स्तुति किये गये राजन् ! जो (अनवः) मनुष्य (ते) आपके (अश्वाय) शीघ्र गमन के लिये (रथम्) वाहन को (तक्षन्) रचें और (त्वष्टा) सब प्रकार से विद्या से प्रदीप्तजन (द्युमन्तम्) प्रकाशयुक्त (वज्रम्) शस्त्र और अस्त्र के समूह को गिराता है और (महयन्तः) प्रशंसा करते हुए (ब्रह्माणः) चारों वेदों के जाननेवाले विद्वान् (अर्कैः) सत्कार के अत्यन्त सिद्ध करनेवाले विचारों वचनों वा कर्मों से आप (इन्द्रम्) अखण्ड ऐश्वर्य्ययुक्त राजा की (अवर्धयन्) वृद्धि करते हैं और (अहये) मेघ के लिये (हन्तवै) नाश करने की वृद्धि करते हैं, उनका (उ) तर्कपूर्वक आप निरन्तर सत्कार करिये ॥४॥
भावार्थभाषाः - राजाओं की योग्यता है कि जो अन्तःकरण से राज्य की उन्नति करने की इच्छा करें, वे सदा ही सत्कार करने योग्य हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे पुरुहूत राजन् ! येऽनवस्तेऽश्वाय रथं तक्षन् त्वष्टा द्युमन्तं वज्रं निपातयति महयन्तो ब्रह्माणोऽर्कैस्त्वामिन्द्रमवर्धयन्नहये हन्तवैऽवर्धयंस्तानु त्वं सततं सत्कुरु ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अनवः) मनुष्याः। अनव इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (ते) तव (रथम्) (अश्वाय) सद्योगमनाय (तक्षन्) रचयन्तु (त्वष्टा) सर्वतो विद्यया प्रदीप्तः (वज्रम्) शस्त्रास्त्रसमूहम् (पुरुहूत) बहुभिः स्तुत (द्युमन्तम्) (ब्रह्माणः) चतुर्वेदविदः (इन्द्रम्) अखण्डैश्वर्यं राजानम् (महयन्तः) पूजयन्तः (अर्कैः) सत्कारसाधकतमैर्विचारैर्वचनैः कर्मभिर्वा (अवर्धयन्) वर्धयन्ति (अहये) मेघाय (हन्तवै) हन्तुम् (उ) वितर्के ॥४॥
भावार्थभाषाः - राज्ञां योग्यतास्ति येऽन्तःकरणेन राज्योन्नतिं कर्त्तुमिच्छेयुस्ते राज्ञा सदैव माननीयाः ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे अन्तकरणापासून राजाची उन्नती करण्याची इच्छा बाळगतात त्यांचा राजाने सदैव सत्कार करावा. ॥ ४ ॥