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आद्रोद॑सी वित॒रं वि ष्क॑भायत्संविव्या॒नश्चि॑द्भि॒यसे॑ मृ॒गं कः॑। जिग॑र्ति॒मिन्द्रो॑ अप॒जर्गु॑राणः॒ प्रति॑ श्व॒सन्त॒मव॑ दान॒वं ह॑न् ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ād rodasī vitaraṁ vi ṣkabhāyat saṁvivyānaś cid bhiyase mṛgaṁ kaḥ | jigartim indro apajargurāṇaḥ prati śvasantam ava dānavaṁ han ||

पद पाठ

आत्। रोद॑सी॒ इति॑। वि॒ऽत॒रम्। वि। स्क॒भा॒य॒त्। स॒म्ऽवि॒व्या॒नः। चि॒त्। भि॒यसे॑। मृ॒गम्। क॒रिति॑ कः। जिग॑र्तिम्। इन्द्रः॑। अ॒प॒ऽजर्गु॑राणः। प्रति॑। श्व॒सन्त॑म्। अव॑। दा॒न॒वम्। ह॒न्निति॑ हन् ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:29» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:23» मन्त्र:4 | मण्डल:5» अनुवाक:2» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! जैसे (इन्द्रः) सूर्य्य (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी को (वितरम्) विशेष उलांघना जैसे हो, वैसे (वि, स्कभायत्) विशेष करके आकर्षित करता है (आत्) और (संविव्यानः) उत्तम प्रकार व्याप्त होता हुआ (भियसे) भय के लिये (चित्) भी (मृगम्) हरिण को (कः) करता तथा (जिगर्त्तिम्) प्रशंसा वा निगलने को (अपजर्गुराणः) आच्छादन से अलग करता हुआ वह (दानवम्) दुष्टप्रकृति मनुष्य को (अव, हन्) हनन करे, वैसे (प्रति, श्वसन्तम्) श्वास लेते हुए प्राणी का निरन्तर प्रतिपालन करो ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा सूर्य्य के सदृश राज्य को धारण करते हैं, जैसे सिंह मृग को व्याकुल करता है, वैसे दुष्टों को व्याकुल करते हैं, वैसा ही बर्त्ताव करके यश को प्रकट करें ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजविषयमाह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! यथेन्द्रः सूर्य्यो रोदसी वितरं वि ष्कभायदात्संविव्यानः सन् भियसे चिन्मृगं को जिगर्त्तिमपजर्गुराणस्स दानवमव हन् तथा प्रतिश्वसन्तं प्राणिनं सततं प्रतिपालय ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आत्) आनन्तर्ये (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (वितरम्) विशेषेण प्लवनम् (वि) (स्कभायत्) विशेषेण स्कभ्नाति (संविव्यानः) सम्यग्व्याप्नुवन् (चित्) अपि (भियसे) भयाय (मृगम्) (कः) करोति (जिगर्त्तिम्) प्रशंसां निगलनं वा (इन्द्रः) सूर्य्यः (अपजर्गुराणः) आच्छादनात् पृथक्कुर्वन् (प्रति) (श्वसन्तम्) प्राणन्तम् (अव) (दानवम्) दुष्टप्रकृतिम् (हन्) हन्यात् ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये राजानः सूर्य्यवद्राज्यं धरन्ति ते सिंहो मृगमिव दुष्टानुद्वेजयन्ति तथैव वर्त्तित्वा यशः प्रथयेयुः ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे राजे सूर्याप्रमाणे राज्य धारण करतात. जसा सिंह मृगाला व्याकूळ करतो, तसे दुष्टांना व्याकूळ करतात तसे वागून यश प्राप्त करावे. ॥ ४ ॥