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इन्द्र॒ ब्रह्म॑ क्रि॒यमा॑णा जुषस्व॒ या ते॑ शविष्ठ॒ नव्या॒ अक॑र्म। वस्त्रे॑व भ॒द्रा सुकृ॑ता वसू॒यू रथं॒ न धीरः॒ स्वपा॑ अतक्षम् ॥१५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indra brahma kriyamāṇā juṣasva yā te śaviṣṭha navyā akarma | vastreva bhadrā sukṛtā vasūyū rathaṁ na dhīraḥ svapā atakṣam ||

पद पाठ

इन्द्र॑। ब्रह्म॑। क्रि॒यमा॑णा। जु॒ष॒स्व॒। या। ते॒। श॒वि॒ष्ठ॒। नव्याः॑। अक॑र्म। वस्त्रा॑ऽइव। भ॒द्रा। सुऽकृ॑ता। व॒सु॒ऽयुः। रथ॑म्। न। धीरः॑। सु॒ऽअपाः॑। अ॒त॒क्ष॒म् ॥१५॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:29» मन्त्र:15 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:25» मन्त्र:5 | मण्डल:5» अनुवाक:2» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वद्विषय में पुरुषार्थरक्षणविषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (शविष्ठ) अतिशय करके बल से और (इन्द्र) विद्या और ऐश्वर्य्य से युक्त ! जिन (ते) आपके (नव्याः) नवीन धनों को हम लोग (अकर्म) करें और (या) जिन (क्रियमाणा) वर्त्तमान पुरुषार्थ से सिद्ध हुए (ब्रह्म) अन्न वा धनों का आप (जुषस्व) सेवन करो उन (भद्रा) कल्याणकारक (सुकृता) धर्म्म से उत्पन्न किये हुओं को (वस्त्रेव) जैसे वस्त्र प्राप्त होते वैसे तथा (स्वपाः) सत्यभाषण आदि कर्म्म करनेवाला (धीरः) ध्यानवान् योगी और (वसूयुः) अपने को धन की इच्छा करनेवाला (रथम्) उत्तम वाहन को (न) जैसे वैसे कल्याणकारक और धर्म्म जैसे उत्पन्न किये गयों को मैं (अतक्षम्) प्राप्त होऊँ ॥१५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! वंश और धन की आशा से आप लोग आलस्य से पुरुषार्थ का न त्याग करो, किन्तु नित्य पुरुषार्थ की वृद्धि से ऐश्वर्य्य की वृद्धि करके वस्त्र और रथ से जैसे वैसे सुख का भोग करके नवीन यश प्रकट करो ॥१५॥ इस सूक्त में इन्द्र और विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह उनतीसवाँ सूक्त और पच्चीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्विषये पुरुषार्थरक्षणविषयमाह ॥

अन्वय:

हे शविष्ठेन्द्र ! यस्य ते नव्याः श्रियो वयमकर्म या क्रियमाणा ब्रह्म त्वं जुषस्व ता भद्रा सुकृता वस्त्रेव स्वपा धीरो वसूयू रथं न भद्रा सुकृता अहमतक्षम् ॥१५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) विद्यैश्वर्य्ययुक्त (ब्रह्म) अन्नानि धनानि वा। ब्रह्मेत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (क्रियमाणा) वर्त्तमानेन पुरुषार्थेन सिद्धानि (जुषस्व) सेवस्व (या) यानि (ते) तव (शविष्ठ) अतिशयेन बलयुक्त (नव्याः) नवीनाः श्रियः (अकर्म) कुर्य्याम (वस्त्रेव) यथा वस्त्राणि प्राप्यन्ते तथा (भद्रा) कल्याणकराणि (सुकृता) धर्म्येण निष्पादितानि (वसूयुः) आत्मनो धनमिच्छुः (रथम्) रमणीयम् (न) इव (धीरः) ध्यानवान् योगी (स्वपाः) सत्यभाषणादिकर्मा (अतक्षम्) प्राप्नुयाम् ॥१५॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! गोत्रधनस्याशया यूयमालस्येन पुरुषार्थं मा त्यजत, किन्तु नित्यं पुरुषार्थवर्धनेनैश्वर्यं वर्धयित्वा वस्त्रवद्रथवत्सुखं भुक्त्वा नूतनं यशः प्रथयतेति ॥१५॥ अत्रेन्द्रविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकोनविंशतितमं सूक्तं पञ्चविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! मोह व धन यांच्या आशेने तुम्ही आळशी बनून पुरुषार्थाचा त्याग करू नका, तर पुरुषार्थाची वृद्धी करून ऐश्वर्य वाढवा. वस्त्र व रथ यांच्यामुळे सुख भोगता येते तसे सुख भोगून नवीन यश मिळवा. ॥ १५ ॥