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यो मे॑ श॒ता च॑ विंश॒तिं च॒ गोनां॒ हरी॑ च यु॒क्ता सु॒धुरा॒ ददा॑ति। वैश्वा॑नर॒ सुष्टु॑तो वावृधा॒नोऽग्ने॒ यच्छ॒ त्र्य॑रुणाय॒ शर्म॑ ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yo me śatā ca viṁśatiṁ ca gonāṁ harī ca yuktā sudhurā dadāti | vaiśvānara suṣṭuto vāvṛdhāno gne yaccha tryaruṇāya śarma ||

पद पाठ

यः। मे॒। श॒ता। च॒। विं॒॒श॒तिम्। च॒। गोना॑म्। हरी॒ इति॑। च॒। यु॒क्ता। सु॒ऽधुरा॑। ददा॑ति। वैश्वा॑नर। सुऽस्तु॑तः। व॒वृ॒धा॒नः। अग्ने॑। यच्छ॑। त्रिऽअ॑रुणाय। शर्म॑ ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:27» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:21» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:2» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् के गुणों को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वैश्वानर) सब में प्रकाशमान (अग्ने) विद्वन् (यः) जो (सुष्टुतः) उत्तम प्रकार प्रशंसा किया गया (वावृधानः) अत्यन्त बढ़ता अर्थात् वृद्धि को प्राप्त होता हुआ (मे) मेरे (गोनाम्) गौओं के (शता) सैकड़ौं (च) और (विंशतिम्) बीसों संख्यावाले समूह को (च) और (युक्ता) युक्त (सुधुरा) उत्तम धुरा जिनमें उन (हरी) ले चलनेवाले घोड़ों को (च) भी (ददाति) देता है उस (त्र्यरुणाय) तीन गुणोंवाले पुरुष के लिये आप (शर्म्म) गृह वा सुख को (यच्छ) दीजिये ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो गौ, घोड़ा और हस्ति आदि पशुओं के पालन करनेवाले होवें, उनके लिये यथायोग्य मासिक वृत्ति दीजिये ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वद्गुणानाह ॥

अन्वय:

हे वैश्वनराऽग्ने ! यस्सुष्टुतो वावृधानो मे गोनां शता च विंशतिं [च] युक्ता सुधुरा हरी च ददाति तस्मै त्र्यरुणाय त्वं शर्म्म यच्छ ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) (मे) (शता) शतानि (च) (विंशतिम्) (च) (गोनाम्) (हरी) हरणशीलावश्वौ (च) (युक्ता) युक्तौ (सुधुरा) शोभना धूर्ययोस्तौ (ददाति) (वैश्वानर) विश्वस्मिन् राजमान (सुष्टुतः) शोभनप्रशंसितः (वावृधानः) अत्यन्तं वर्धमानः (अग्ने) विद्वन् (यच्छ) देहि (त्र्यरुणाय) (शर्म्म) गृहं सुखं वा ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! ये गवाश्वहस्त्यादीनां पशूनां पालकाः स्युस्तेभ्यो यथायोग्यां भृतिं प्रयच्छन्तु ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! जे गाय, घोडा व हत्ती इत्यादी पशूंचे पालन करणारे असतात त्यांना यथायोग्य मोबदला द्यावा. ॥ २ ॥