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यद्वाहि॑ष्ठं॒ तद॒ग्नये॑ बृ॒हद॑र्च विभावसो। महि॑षीव॒ त्वद्र॒यिस्त्वद्वाजा॒ उदी॑रते ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad vāhiṣṭhaṁ tad agnaye bṛhad arca vibhāvaso | mahiṣīva tvad rayis tvad vājā ud īrate ||

पद पाठ

यत्। वाहि॑ष्ठम्। तत्। अ॒ग्नये॑। बृ॒हत्। अ॒र्च॒। वि॒भा॒व॒सो॒ इति॑ विभाऽवसो। महि॑षीऽइव। त्वत्। र॒यिः। त्वत्। वाजाः॑। उत्। ई॒र॒ते॒ ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:25» मन्त्र:7 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:18» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:2» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अग्निपदवाच्य राजदृष्टान्त से विद्वद्विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (विभावसो) स्वयं प्रकाशित ! (यत्) जिस (वाहिष्ठम्) अतिशय प्राप्त करनेवाले का (अग्नये) राजा के लिये (बृहत्) बड़ा (अर्च) सत्कार करो (तत्) उसकी (महिषीव) बड़ी अर्थात् पटरानी के सदृश सेवा करो और जो (त्वत्) आपसे (रयिः) धन और (त्वत्) आपसे (वाजाः) अन्न आदि (उत्, ईरते) उत्तमता से उत्पन्न होते हैं, उनको हम लोग प्राप्त होवें ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे पतिव्रता रानी अपने पति का निरन्तर सत्कार करती और उससे उत्पन्न हुए अत्यन्त सुख को प्राप्त होती है, वैसे ही मनुष्य विद्वानों का आदर करके उनसे उत्पन्न हुई अर्थात् उनके सम्बन्ध से प्रकट हुई बुद्धि को प्राप्त होकर निरन्तर सुखी हो ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाग्निपदवाच्यराजदृष्टान्तेन विद्वद्विषयमाह ॥

अन्वय:

हे विभावसो ! यद्यं वाहिष्ठमग्नये बृहदर्च तत्तम्महिषीव सेवस्व यस्त्वद्रयिस्त्वद् वाजा उदीरते तान् वयं लभेमहि ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यम् (वाहिष्ठम्) अतिशयेन वोढारम् (तत्) तम् (अग्नये) राज्ञे (बृहत्) (अर्च) सत्कुरु (विभावसो) स्वप्रकाश (महिषीव) ज्येष्ठा राज्ञीव (त्वत्) (रयिः) धनम् (त्वत्) (वाजाः) अन्नाद्याः (उत्) (ईरते) उत्कृष्टतया जायन्ते ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । यथा पतिव्रता राज्ञी स्वपतिं सततं सत्करोति तस्माज्जातं पुष्कलसुखं लभते तथैव मनुष्या विदुषः संसेव्य तेभ्यो जातां प्रज्ञां प्राप्य सततं सुखयन्तु ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी पतिव्रता राणी आपल्या पतीचा निरंतर सत्कार करते व त्यापासून अत्यंत सुख प्राप्त करते तसाच माणसांनी विद्वानांचा आदर करून त्यांच्या संगतीने उत्पन्न झालेल्या बुद्धिमुळे निरंतर सुखी व्हावे. ॥ ७ ॥