अग्ने॒ त्वं नो॒ अन्त॑म उ॒त त्रा॒ता शि॒वो भ॑वा वरू॒थ्यः॑ ॥ वसु॑र॒ग्निर्वसु॑श्रवा॒ अच्छा॑ नक्षि द्यु॒मत्त॑मं र॒यिं दाः॑ ॥२॥
vasur agnir vasuśravā acchā nakṣi dyumattamaṁ rayiṁ dāḥ ||
अग्ने॑। त्वम्। नः॒। अन्त॑मः। उ॒त। त्रा॒ता। शि॒वः। भ॒व॒। व॒रू॒थ्यः॑। वसुः॑। अ॒ग्निः। वसु॑ऽश्रवाः। अच्छ॑। न॒क्षि॒। द्यु॒मतऽत॑मम्। र॒यिम्। दाः॒ ॥२॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब चार ऋचावाले चौबीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अग्निपदवाच्य राजविषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथाग्निपदवाच्यराजविषयमाह ॥
हे अग्ने ! त्वं नोऽन्तमः शिवो वरूथ्यो वसुर्वसुश्रवा अग्निरिव शिव उत त्राता भवा य द्युमत्तमं रयिं त्वमच्छा नक्षि तमस्मभ्यं दाः ॥२॥