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अग्ने॑ चिकि॒द्ध्य१॒॑स्य न॑ इ॒दं वचः॑ सहस्य। तं त्वा॑ सुशिप्र दम्पते॒ स्तोमै॑र्वर्ध॒न्त्यत्र॑यो गी॒र्भिः शु॑म्भ॒न्त्यत्र॑यः ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agne cikiddhy asya na idaṁ vacaḥ sahasya | taṁ tvā suśipra dampate stomair vardhanty atrayo gīrbhiḥ śumbhanty atrayaḥ ||

पद पाठ

अग्ने॑। चि॒कि॒द्धि। अ॒स्य। नः॒। इ॒दम्। वचः॑। स॒ह॒स्य॒। तम्। त्वा। सु॒ऽशि॒प्र॒। द॒म्ऽप॒ते॒। स्तोमैः॑। व॒र्ध॒न्ति॒। अत्र॑यः। गीः॒ऽभिः। शु॒म्भ॒न्ति॒। अत्र॑यः ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:22» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:14» मन्त्र:4 | मण्डल:5» अनुवाक:2» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सहस्य) बल में श्रेष्ठ (सुशिप्र) सुन्दर ठुड्डी और नासिकावाले (दम्पते) स्त्री और पुरुष (अग्ने) विद्वन् ! आप जैसे (अत्रयः) तीन प्रकार के दुःखों से रहित जन (स्तोमैः) प्रशंसित व्यवहारों से (वर्धन्ति) वृद्धि को प्राप्त होते हैं और जैसे (अत्रयः) काम, क्रोध, और लोभ इन तीन दोषों से रहित जन (गीर्भिः) वाणियों से (शुम्भन्ति) पवित्र करते हैं, वैसे (नः) हम लोगों के (इदम्) इस (वचः) वचन को और (अस्य) इसके वचन को (चिकिद्धि) जानिये (तम्) उन (त्वा) आपका हम लोग सत्कार करें ॥४॥
भावार्थभाषाः - जैसे पुरुषार्थी मनुष्य सबकी वृद्धि करते हैं और उपदेशक जन सब जनों को पवित्र करते हैं, वैसे ही सब मनुष्य आचरण करें ॥४॥ इस सूक्त में अग्नि के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह बाईसवाँ सूक्त और चौदहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे सहस्य सुशिप्र दम्पतेऽग्ने ! त्वं यथाऽत्रयः स्तोमैर्वर्धन्ति यथाऽत्रयो गीर्भिः शुम्भन्ति तथा न इदं वचोऽस्य च चिकिद्धि तं त्वा वयं सत्कुर्य्याम ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) विद्वन् (चिकिद्धि) विजानीहि (अस्य) (नः) अस्माकम् (इदम्) (वचः) (सहस्य) सहसि बले साधो (तम्) (त्वा) त्वाम् (सुशिप्र) शोभनहनुनासिक (दम्पते) स्त्रीपुरुष (स्तोमैः) प्रशंसितैर्व्यवहारैः वाग्भिः (वर्धन्ति) (अत्रयः) अविद्यमानत्रिविधदुःखा (गीर्भिः) (शुम्भन्ति) पवित्रयन्ति (अत्रयः) त्रिभिः कामक्रोधलोभदोषै रहिताः ॥४॥
भावार्थभाषाः - यथा पुरुषार्थिनो मनुष्या सर्वान् वर्धयन्त्युपदेशकाः सर्वान् पवित्रयन्ति तथैव सर्वे मनुष्या आचरन्त्विति ॥४॥ अत्राग्निगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति द्वाविंशतितमं सूक्तं चतुर्दशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जशी पुरुषार्थी माणसे सर्वांचे वर्धन करतात व उपदेशक सर्वांना पवित्र करतात तसे माणसांनी आचरण करावे. ॥ ४ ॥