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प्र वि॑श्वसामन्नत्रि॒वदर्चा॑ पाव॒कशो॑चिषे। यो अ॑ध्व॒रेष्वीड्यो॒ होता॑ म॒न्द्रत॑मो वि॒शि ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra viśvasāmann atrivad arcā pāvakaśociṣe | yo adhvareṣv īḍyo hotā mandratamo viśi ||

पद पाठ

प्र। वि॒श्व॒ऽसा॒म॒न्। अ॒त्रि॒ऽवत्। अर्च॑। पा॒व॒कऽशो॑चिषे। यः। अ॒ध्व॒रेषु॑। ईड्यः॑। होता॑। म॒न्द्रऽत॑मः। वि॒शि ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:22» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:14» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:2» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब चार ऋचावाले बाईसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अग्निविषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (विश्वसामन्) सम्पूर्ण सामोंवाले (यः) जो (अध्वरेषु) यज्ञों में (ईड्यः) प्रशंसा करने योग्य (होता) दाता (विशि) प्रजा में (मन्द्रतमः) अतिशय आनन्द युक्त होवे उस (पावकशोचिषे) अग्नि के प्रकाश के सदृश प्रकाशवाले पुरुष के लिये (अत्रिवत्) व्यापक विद्यावाले के सदृश (प्र, अर्चा) सत्कार कीजिये ॥१॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि धार्मिक जनों का ही सत्कार करें, अन्य जनों का नहीं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाग्निविषयमाह ॥

अन्वय:

हे विश्वसामन् ! योऽध्वरेष्वीड्यो होता विशि मन्द्रतमो भवेत् तस्मै पावकशोचिषेऽत्रिवत् प्रार्चा ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (विश्वसामन्) विश्वानि सामानि यस्य तत्सम्बुद्धौ (अत्रिवत्) व्यापकविद्यावत् (अर्चा) सत्कुरु। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (पावकशोचिषे) पावकस्य शोचः प्रकाश इव प्रकाशो यस्य तस्मै (यः) (अध्वरेषु) (ईड्यः) प्रशंसनीयः (होता) दाता (मन्द्रतमः) अतिशयेनानन्दयुक्तः (विशि) प्रजायाम् ॥१॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्धार्मिकाणामेव सत्कारः कर्त्तव्यो नान्येषाम् ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अग्नीच्या गुणाचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची या पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी. ॥

भावार्थभाषाः - माणसांनी धार्मिक माणसांचा सत्कार करावा. इतरांचा नाही. ॥ १ ॥