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दे॒वं वो॑ देवय॒ज्यया॒ग्निमी॑ळीत॒ मर्त्यः॑। समि॑द्धः शुक्र दीदिह्यृ॒तस्य॒ योनि॒मास॑दः स॒सस्य॒ योनि॒मास॑दः ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

devaṁ vo devayajyayāgnim īḻīta martyaḥ | samiddhaḥ śukra dīdihy ṛtasya yonim āsadaḥ sasasya yonim āsadaḥ ||

पद पाठ

दे॒वम्। वः॒। दे॒व॒ऽय॒ज्यया॑। अ॒ग्निम्। ई॒ळी॒त॒। मर्त्यः॑। सम्ऽइ॑द्धः। शु॒क्र॒। दी॒दि॒हि॒। ऋ॒तस्य॑। योनि॑म्। आ। अ॒स॒दः॒। स॒सस्य॑। योनि॑म्। आ। अ॒स॒दः॒ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:21» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:13» मन्त्र:4 | मण्डल:5» अनुवाक:2» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वद्विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! (वः) आप लोगों के (देवयज्यया) विद्वानों के मेल से (मर्त्यः) मनुष्य (देवम्) प्रकाशित (अग्निम्) अग्नि की (ईळीत) प्रशंसा करे। हे (शुक्र) सामर्थ्यवाले (समिद्धः) उत्तम गुणों से प्रकाशित ! आप (दीदिहि) प्रकाश कराओ और (ऋतस्य) सत्य परमाणु आदि के (योनिम्) कारण को (आ, असदः) सब प्रकार जानिये और (ससस्य) कार्य्य के (योनिम्) कारण को (आ, असदः) सब प्रकार जानिये ॥४॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य विद्वानों के सङ्ग से कार्य्य और कारणस्वरूप सृष्टि अर्थात् सत्त्व, रज और तमोगुण को साम्यावस्थारूप प्रधान को जान के कार्य को सिद्ध करते हैं, वे सृष्टि के क्रम को जान के दुःख को कभी नहीं प्राप्त होते हैं ॥४॥ इस सूक्त में अग्नि और विद्वानों के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह इक्कीसवाँ सूक्त और त्रयोदशवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वद्विषयमाह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! वो देवयज्यया मर्त्यो देवमग्निमीळीत हे शुक्र समिद्धस्त्वं दीदिहि ऋतस्य योनिमासदः ससस्य योनिमासदः ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (देवम्) (वः) युष्माकम् (देवयज्यया) देवानां विदुषां सङ्गत्या (अग्निम्) (ईळीत) प्रशंस्येत् (मर्त्यः) मनुष्यः (समिद्धः) (शुक्र) शक्तिमन् (दीदिहि) प्रकाशय (ऋतस्य) सत्यस्य परमाण्वादेः (योनिम्) कारणम् (आ) (असदः) जानीयाः (ससस्य) कार्य्यस्य (योनिम्) कारणम् (आ, असदः) समन्ताज्जानीहि ॥४॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या विद्वत्सङ्गेन कार्यकारणात्मिकां सृष्टिं विज्ञाय कार्य्यसिद्धिं समाचरन्ति ते सृष्टिक्रमं विज्ञाय दुःखं कदाचिन्न भजन्त इति ॥४॥ अत्राग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकाधिकविंशतितमं सूक्तं त्रयोदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे विद्वानांच्या संगतीने कार्य व कारणरूप सृष्टीला जाणून कार्य सिद्ध करतात. ती सृष्टिक्रम जाणतात व त्यांना कधीही दुःख होत नाही. ॥ ४ ॥