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त्वं हि मानु॑षे॒ जनेऽग्ने॒ सुप्री॑त इ॒ध्यसे॑। स्रुच॑स्त्वा यन्त्यानु॒षक्सुजा॑त॒ सर्पि॑रासुते ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ hi mānuṣe jane gne suprīta idhyase | srucas tvā yanty ānuṣak sujāta sarpirāsute ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। हि। मानु॑षे। जने॑। अग्ने॑। सुऽप्री॑तः। इ॒ध्यसे॑। स्रुचः॑। त्वा॒। य॒न्ति॒। आ॒नु॒षक्। सुऽजा॑त। सर्पिः॑ऽआसुते ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:21» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:13» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:2» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सुजात) उत्तम प्रकार उत्पन्न (अग्ने) अग्नि के सदृश प्रताप से वर्त्तमान ! जैसे अग्नि (सर्पिरासुते) घृत से सब ओर से प्रकाशित हुए में प्रकाशित किया जाता है, वैसे (हि) ही (त्वम्) आप (मानुषे, जने) प्रसिद्ध मनुष्य में (सुप्रीतः) उत्तम प्रकार प्रसन्न हुए (इध्यसे) प्रकाशित होते हो और जैसे (त्वा) आपको (स्रुचः) यज्ञ के साधन पात्र (आनुषक्) अनुकूलता से (यन्ति) प्राप्त होते हैं, वैसे ही आप सबके प्रति अनुकूल हूजिये ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! आप लोग जैसे अग्नि इन्धन और घृत आदिकों को प्राप्त होकर वृद्धि को प्राप्त होता है, वैसे ही विद्या और उत्तम गुणों को प्राप्त होकर निरन्तर वृद्धि को प्राप्त हूजिये ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे सुजाताग्ने ! यथाऽग्निः सर्पिरासुते प्रदीप्यते तथा हि त्वं मानुषे जने सुप्रीत इध्यसे यथा त्वा स्रुच आनुषक् यन्ति तथैव त्वं सर्वान् प्रत्यनुकूलो भव ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (हि) (मानुषे) (जने) प्रसिद्धे (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान (सुप्रीतः) सुष्ठु प्रसन्नः (इध्यसे) प्रदीप्यसे (स्रुचः) यज्ञसाधनानि पात्राणि (त्वा) त्वाम् (यन्ति) (आनुषक्) आनुकूल्येन (सुजात) सुष्ठुजात (सर्पिरासुते) सर्पिषा समन्तात् प्रदीपिते ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! भवन्तो यथाग्निरिन्धनघृतादीनि प्राप्य वर्धते तथैव विद्यां शुभगुणाँश्च प्राप्य सततं वर्धन्ताम् ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसा अग्नी इंधन व घृत इत्यादींमुळे वृद्धिंगत होतो तसेच विद्या व शुभ गुण प्राप्त करून निरंतर वृद्धी करा. ॥ २ ॥