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यम॑ग्ने वाजसातम॒ त्वं चि॒न्मन्य॑से र॒यिम्। तं नो॑ गी॒र्भिः श्र॒वाय्यं॑ देव॒त्रा प॑नया॒ युज॑म् ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yam agne vājasātama tvaṁ cin manyase rayim | taṁ no gīrbhiḥ śravāyyaṁ devatrā panayā yujam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यम्। अ॒ग्ने॒। वा॒ज॒ऽसा॒त॒म॒। त्वम्। चि॒त्। मन्य॑से। र॒यिम्। तम्। नः॒। गीः॒ऽभिः। श्र॒वाय्य॑म्। दे॒व॒ऽत्रा। प॒न॒य॒। युज॑म् ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:20» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:12» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:2» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब चार ऋचावाले बीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अग्निपदवाच्य विद्वान् के गुणों का वर्णन करते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वाजसातम) अतिशय विज्ञान आदि पदार्थों के विभाजक (अग्ने) विद्वन् ! (त्वम्) आप (गीर्भिः) उत्तम प्रकार उपदेशरूप हुई वाणियों से (यम्) जिस (देवत्रा) विद्वानों में (श्रवाय्यम्) सुनने योग्य (युजम्) योग करनेवाले (रयिम्) धन को अपने लिये (मन्यसे) स्वीकार करते हो (तम्) उसको (चित्) भी (नः) हम लोगों को (पनया) व्यवहार से प्राप्त कराइये ॥१॥
भावार्थभाषाः - यही धर्मयुक्त व्यवहार है कि जैसे इच्छा अपने लिये होती है, वैसे ही दूसरे के लिये करे और जैसे प्राणी अपने लिये दुःख की नहीं इच्छा करते हैं और सुख की प्रार्थना करते हैं, वैसे ही अन्य के लिये भी उनको वर्त्ताव करना चाहिये ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाग्निपदवाच्यविद्वद्विषयमाह ॥

अन्वय:

हे वाजसातमाग्ने ! त्वं गीर्भिर्यं देवत्रा श्रवाय्यं युजं रयिं स्वार्थं मन्यसे तं चिन्नः पनया ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यम्) (अग्ने) विद्वन् (वाजसातम) अतिशयेन वाजानां विज्ञानादिपदार्थानां विभाजक (त्वम्) (चित्) अपि (मन्यसे) (रयिम्) श्रियम् (तम्) (नः) अस्मान् (गीर्भिः) सूपदिष्टाभिर्वाग्भिः (श्रवाय्यम्) श्रोतुं योग्यम् (देवत्रा) देवेषु (पनया) व्यवहारेण प्रापय। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (युजम्) यो युनक्ति तम् ॥१॥
भावार्थभाषाः - अयमेव धर्म्यो व्यवहारो यादृशीच्छा स्वार्था भवति तादृशीमेव परार्थां कुर्याद्यथा प्राणिनः स्वार्थं दुःखं नेच्छन्ति सुखं च प्रार्थयन्ते तथैवान्यार्थमपि तैर्वर्त्तितव्यम् ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अग्नीचे गुणवर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - जशी स्वतःसाठी इच्छा केली जाते. तशी दुसऱ्याबद्दल बाळगावी. जसे प्राणी स्वतःसाठी दुःख इच्छित नाहीत सुखच इच्छितात तसेच इतरांबरोबरही वर्तन करावे. हाच धर्मव्यवहार आहे. ॥ १ ॥