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शुन॑श्चि॒च्छेपं॒ निदि॑तं स॒हस्रा॒द्यूपा॑दमुञ्चो॒ अश॑मिष्ट॒ हि षः। ए॒वास्मद॑ग्ने॒ वि मु॑मुग्धि॒ पाशा॒न्होत॑श्चिकित्व इ॒ह तू नि॒षद्य॑ ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śunaś cic chepaṁ niditaṁ sahasrād yūpād amuñco aśamiṣṭa hi ṣaḥ | evāsmad agne vi mumugdhi pāśān hotaś cikitva iha tū niṣadya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

शुनः॑। चि॒त्। शेप॑म्। निऽदि॑तम्। स॒हस्रा॑त्। यूपा॑त्। अ॒मु॒ञ्चः॒। अश॑मिष्ट। हि। सः। ए॒व। अ॒स्मत्। अ॒ग्ने॒। वि। मु॒मु॒ग्धि॒। पाशा॑न्। होत॒रिति॑। चि॒कि॒त्वः॒। इ॒ह। तु। नि॒ऽसद्य॑ ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:2» मन्त्र:7 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:15» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:1» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्वन् ! आप (सहस्रात्) असंख्य (यूपात्) मिले वा न मिले हुए बन्धन से (निदितम्) निन्दित (शुनःशेपम्) सुख के प्राप्त कराने और इन्द्रियाराम अर्थात् इन्द्रियों में रमण रखनेवाले को (चित्) भी (अमुञ्चः) त्याग करो (हि) जिससे (सः) वह (अशमिष्ट) शान्त होता (एव) ही है। हे (होतः) हवन करनेवाले (चिकित्व) बुद्धिमान् ! (इह) यहाँ युक्तधर्म्म सम्बन्धी व्यवहार में (निषद्य) प्रवृत्त होकर (अस्मत्) हम लोगों से (पाशान्) संसाररूप बन्धनों को (तू) फिर (वि, मुमुग्धि) काटिये ॥७॥
भावार्थभाषाः - विद्वानों का यही आवश्यक कर्म्म है, जो सब मनुष्यों को अविद्या और अधर्म्माचरण से अलग कर विद्वान् धार्मिक बना उनका दुःखबन्धन छुड़ाना निरन्तर करना चाहिये ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे अग्ने विद्वँस्त्वं सहस्राद् यूपान्निदितं शुनःशेपं चिदमुञ्चो हि यतः सोऽशमिष्टैव। हे होतश्चिकित्व ! इह निषद्याऽस्मत् पाशाँस्तू वि मुमुग्धि ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (शुनःशेपम्) सुखस्य प्रापकमिन्द्रियारामम् (चित्) अपि (निदितम्) निन्दितम् (सहस्रात्) असङ्ख्यात् (यूपात्) मिश्रितादमिश्रिताद् बन्धनात् (अमुञ्चः) मुच्याः (अशमिष्ट) शाम्यति (हि) यतः (सः) (एव) (अस्मत्) (अग्ने) विद्वन् (वि) (मुमुग्धि) विमोचय (पाशान्) बन्धनानि (होतः) (चिकित्वः) बुद्धिमन् (इह) युक्ते धर्म्ये व्यवहारे (तू) पुनः। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (निषद्य) निषण्णो भूत्वा ॥७॥
भावार्थभाषाः - विदुषामिदमेवावश्यकं कृत्यमस्ति यत्सर्वान् मनुष्यानविद्याऽधर्म्माचरणात् पृथक्कृत्य विदुषो धार्मिकान् सम्पाद्य तेषां दुःखबन्धनान्मोचनं सततं कर्त्तव्यमिति ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व माणसांना अविद्या व अधर्माचरणापासून पृथक करून विद्वान धार्मिक बनवून त्यांना निरन्तर दुःखबंधनातून मुक्त करावे. हेच विद्वानांचे कर्तव्य आहे. ॥ ७ ॥