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क्रीळ॑न्नो रश्म॒ आ भु॑वः॒ सं भस्म॑ना वा॒युना॒ वेवि॑दानः। ता अ॑स्य सन्धृ॒षजो॒ न ति॒ग्माः सुसं॑शिता व॒क्ष्यो॑ वक्षणे॒स्थाः ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

krīḻan no raśma ā bhuvaḥ sam bhasmanā vāyunā vevidānaḥ | tā asya san dhṛṣajo na tigmāḥ susaṁśitā vakṣyo vakṣaṇesthāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

क्रीळ॑न्। नः॒। र॒श्मे॒। आ। भु॒वः॒। सम्। भस्म॑ना। वा॒युना॑। वेवि॑दानः। ताः। अ॒स्य॒। स॒न्। धृ॒षजः॑। न। ति॒ग्माः। सुऽसं॑शिताः। व॒क्ष्यः॑। व॒क्ष॒णे॒ऽस्थाः ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:19» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:11» मन्त्र:5 | मण्डल:5» अनुवाक:2» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (रश्मे) किरणों के सदृश वर्त्तमान विद्वन् ! जैसे बिजुलीरूप अग्नि (भस्मना) भस्म और (वायुना) पवन से (वेविदानः) जनाता अर्थात् अपने को प्रकट करता हुआ (ताः) उन (अस्य) इसकी (धृषजः) धृष्टता से उत्पन्न हुओं के (न) सदृश (तिग्माः) तीव्र (सुसंशिताः) उत्तम प्रकार प्रशंसित (वक्ष्यः) ले चलनेवाली और (वक्षणेस्थाः) वाहन में स्थिर ऐसी लपटों को धारण करता (सन्) हुआ सुख की (सम्) संभावना कराता है, वैसे (क्रीळन्) क्रीड़ा करते हुए आप (नः) हम लोगों के सुखकारी (आ, भुवः) हूजिये ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे विद्वानो ! जैसे सूर्य की किरणें सर्वत्र फैली हुई सब को सुख देती हैं, वैसे ही सब स्थानों में भ्रमण तथा उपदेश करते हुए आप सब को आनन्द दीजिये ॥५॥ इस सूक्त में विद्वानों के सिद्ध करने योग्य उपदेश विषय का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह उन्नीसवाँ सूक्त और ग्यारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे रश्मे रश्मिवद्वर्त्तमान विद्वन् ! यथा विद्युदग्निर्भस्मना वायुना वेविदानस्ता अस्य धृषजो न तिग्माः सुसंशिता वक्ष्यो वक्षणेस्था वहन् सन् सुखं सम्भावयति तथा क्रीळन्नोऽस्मान् सुखकार्या भुवः ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (क्रीळन्) (नः) अस्मान् (रश्मे) रश्मिवद्वर्त्तमान (आ) (भुवः) भवेः (सम्) (भस्मना) (वायुना) पवनेन (वेविदानः) विज्ञापयन् (ताः) (अस्य) (सन्) (धृषजः) धार्ष्ट्याज्जातान् (न) इव (तिग्माः) तीव्राः (सुसंशिताः) सुष्ठु प्रशंसिताः (वक्ष्यः) वोढ्यः (वक्षणेस्थाः) या वाहने तिष्ठन्ति ताः ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ । हे विद्वांसो ! यथा सूर्य्यस्य रश्मय सर्वत्र प्रसृताः सर्वान् सुखयन्ति तथैव सर्वत्र विहरन्त उपदिशन्तः सर्वानानन्दयन्त्विति ॥५॥ अत्र विद्वत्साध्योपदेशविषयवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकोनविंशं सूक्तमेकादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. हे विद्वानांनो ! जशी सूर्याची किरणे सर्वत्र प्रसृत होऊन सर्वांना सुखी करतात तसे सर्व स्थानी भ्रमण करून व उपदेश करून आनंद द्या. ॥ ५ ॥