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द्वि॒ताय॑ मृ॒क्तवा॑हसे॒ स्वस्य॒ दक्ष॑स्य मं॒हना॑। इन्दुं॒ स ध॑त्त आनु॒षक्स्तो॒ता चि॑त्ते अमर्त्य ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dvitāya mṛktavāhase svasya dakṣasya maṁhanā | induṁ sa dhatta ānuṣak stotā cit te amartya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

द्वि॒ताय॑। मृ॒क्तऽवा॑हसे। स्वस्य॑। दक्ष॑स्य। मं॒हना॑। इन्दु॑म्। सः। ध॒त्ते॒। आ॒नु॒षक्। स्तो॒ता। चि॒त्। ते॒। अ॒म॒र्त्य॒ ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:18» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:10» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:2» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर अतिथिविषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अमर्त्य) अपने स्वरूप से नित्य ! जो (स्तोता) सत्य विद्या की प्रशंसा करनेवाला (आनुषक्) अनुकूलता से (इन्दुम्) ऐश्वर्य्य को (चित्) ही (ते) तेरे लिये (धत्ते) धारण करता है (सः) वह (द्विताय) दो जन्मों से विद्या को प्राप्त (मृक्तवाहसे) शुद्ध विज्ञान को प्राप्त करानेवाले (स्वस्य) और अपने (दक्षस्य) बल के (मंहना) बड़प्पन के साथ वर्त्तमान अतिथि के लिये सुख देवे ॥२॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य यथार्थवक्ता अतिथियों का सत्कार करते हैं, वे सत्य विज्ञान को प्राप्त हो कर सर्वदा आनन्दित होते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरतिथिविषयमाह ॥

अन्वय:

हे अमर्त्य ! यः स्तोतानुषगिन्दुं चित्ते धत्ते स द्विताय मृक्तवाहसे स्वस्य दक्षस्य मंहना सह वर्त्तमानायाऽतिथये सुखं प्रयच्छेत् ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (द्विताय) द्वाभ्यां जन्मभ्यां विद्यां प्राप्ताय (मृक्तवाहसे) शुद्धविज्ञानप्रापकाय (स्वस्य) (दक्षस्य) (मंहना) महत्त्वेन (इन्दुम्) ऐश्वर्यम् (सः) (धत्ते) (आनुषक्) आनुकूल्ये (स्तोता) सत्यविद्याप्रशंसकः (चित्) अपि (ते) तुभ्यम् (अमर्त्य) आत्मस्वरूपेण नित्य ॥२॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या आप्तानतिथीन् सत्कुर्वन्ति ते सत्यं विज्ञानं प्राप्य सर्वदानन्दन्ति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे आप्त विद्वान अतिथींचा सत्कार करतात ती माणसे सत्य विज्ञान जाणून सदैव आनंदी राहतात. ॥ २ ॥