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तं हि शश्व॑न्त॒ ईळ॑ते स्रु॒चा दे॒वं घृ॑त॒श्चुता॑। अ॒ग्निं ह॒व्याय॒ वोळ्ह॑वे ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

taṁ hi śaśvanta īḻate srucā devaṁ ghṛtaścutā | agniṁ havyāya voḻhave ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तम्। हि। शश्व॑न्तः। ईळ॑ते। स्रु॒चा। दे॒वम्। घृ॒त॒ऽश्चुता॑। अ॒ग्निम्। ह॒व्याय॑। वोळ्ह॑वे ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:14» मन्त्र:3 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:6» मन्त्र:3 | मण्डल:5» अनुवाक:1» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (शश्वन्तः) अनादि से वर्त्तमान जीव जैसे यज्ञ करनेवाला और यजमान (घृतश्चुता) जो घृत वा जल चुआती उस (स्रुचा) यज्ञ सिद्ध करानेवाली स्रुच् उससे (हव्याय) देने और लेने के योग्य के लिये (वोळ्हवे) धारण करने को (अग्निम्) अग्नि की (ईळते) प्रशंसा करते हैं, वैसे (हि) ही योगाभ्यास से (तम्) उस परमात्मा (देवम्) देव अर्थात् निरन्तर प्रकाशमान की स्तुति करें ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे शिल्पीजन अग्नि आदि तत्त्वों की विद्या को प्राप्त होकर और अनेक कार्य्यों को सिद्ध करके प्रयोजनों को सिद्ध करते हैं, वैसे मनुष्य परमात्मा को यथावत् जान के अपनी इच्छाओं को सिद्ध करें ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

शश्वन्तो जीवा यथा ऋत्विग्यजमाना घृतश्चुता स्रुचा हव्याय वोळ्हवेऽग्निमीळते तथा हि तं परमात्मानं देवमीळन्ताम् ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) (हि) (शश्वन्तः) अनादिभूता जीवाः (ईळते) प्रशंसन्ति (स्रुचा) यज्ञसाधनेनेव योगाभ्यासेन (देवम्) देदीप्यमानम् (घृतश्चुता) घृतं श्चोतति तेन (अग्निम्) (हव्याय) दातुमादातुमर्हाय (वोळ्हवे) वोढुम् ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यथा शिल्पिनोऽग्न्यादितत्त्वविद्यां प्राप्यानेकानि कार्य्याणि संसाध्य सिद्धप्रयोजना जायन्ते तथा मनुष्याः परमात्मानं यथावद्विज्ञाय सिद्धेच्छा भवन्तु ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोमालंकार आहे. जसे शिल्पीजन (कारागीर) अग्नी इत्यादी विद्या प्राप्त करून अनेक कार्य करून प्रयोजन सिद्ध करतात तसे माणसांनी परमेश्वराला यथायोग्य जाणून आपल्या इच्छा सिद्ध कराव्यात. ॥ ३ ॥