वांछित मन्त्र चुनें

य॒ज्ञस्य॑ के॒तुं प्र॑थ॒मं पु॒रोहि॑तम॒ग्निं नर॑स्त्रिषध॒स्थे समी॑धिरे। इन्द्रे॑ण दे॒वैः स॒रथं॒ स ब॒र्हिषि॒ सीद॒न्नि होता॑ य॒जथा॑य सु॒क्रतुः॑ ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yajñasya ketum prathamam purohitam agniṁ naras triṣadhasthe sam īdhire | indreṇa devaiḥ sarathaṁ sa barhiṣi sīdan ni hotā yajathāya sukratuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

य॒ज्ञस्य॑। के॒तुम्। प्र॒थ॒मम्। पु॒रःऽहित॑म्। अ॒ग्निम्। नरः॑। त्रिऽस॒ध॒स्थे। सम्। ई॒धि॒रे॒। इन्द्रे॒ण। दे॒वैः। स॒ऽरथ॑म्। सः। ब॒र्हिषि॑। सीद॑त्। नि। होता॑। य॒जथा॑य। सु॒ऽक्रतुः॑ ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:11» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:3» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:1» मन्त्र:2


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वद्विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नरः) श्रेष्ठ कार्य्यों में अग्रणी विद्वान् लोगो ! जैसे आप लोग (त्रिषधस्थे) तीन पदार्थों के सहित स्थान में (यजथाय) मिलने के लिये (यज्ञस्य) उत्तम ज्ञान की (केतुम्) बुद्धि को तथा (प्रथमम्) प्रथम वर्त्तमान (पुरोहितम्) प्रथम इसको धारण करें ऐसे (अग्निम्) अग्नि के समान प्रकाशमान को (सम्, इधिरे) उत्तम प्रकार प्रकाशित करें, वैसे (सः) वह (सुक्रतुः) उत्तम बुद्धि वा उत्तम कर्म्मवाले (होता) दाता आप (इन्द्रेण) बिजुली और (देवैः) पृथिवी आदिकों के साथ (बर्हिषि) अन्तरिक्ष में (सरथम्) वाहनों के समूह के सहित (नि, सीदत्) स्थित हूजिये ॥२॥
भावार्थभाषाः - जो विद्वान् जन विद्या, धर्म और पुरुषार्थ में स्वयं वर्त्ताव करके अन्यों का उसके अनुसार वर्त्ताव कराते हैं, वे ही सब को बोध देनेवाले होते हैं ॥२॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्विषयमाह ॥

अन्वय:

हे नरो विद्वांसो ! यथा यूयं त्रिषधस्थे यजथाय यज्ञस्य केतुं प्रथमं पुरोहितमग्निं समीधिरे तथा स सुक्रतुर्होता त्वमिन्द्रेण देवैः सह बर्हिषि सरथं नि षीदत् ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यज्ञस्य) सम्यग्ज्ञानस्य (केतुम्) प्रज्ञाम् (प्रथमम्) आदिमम् (पुरोहितम्) पुर एनं दधति (अग्निम्) पावकमिव प्रकाशमानम् (नरः) नायका विद्वांसः (त्रिषधस्थे) त्रिभिस्सह स्थाने (सम्, ईधिरे) सम्यक् प्रदीपयेयुः (इन्द्रेण) विद्युता (देवैः) पृथिव्यादिभिः (सरथम्) रथेन यानसमूहेन सहितम् (सः) (बर्हिषि) अन्तरिक्षे (सीदत्) सीद (नि) (होता) दाता (यजथाय) सङ्गमनाय (सुक्रतुः) सुष्ठुप्रज्ञः शोभनकर्मा वा ॥२॥
भावार्थभाषाः - ये विद्वांसो विद्याधर्मपुरुषार्थेषु स्वयं वर्त्तित्वाऽन्यान् वर्त्तयन्ति त एव सर्वविज्ञापका भवन्ति ॥२॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे विद्वान विद्या, धर्म, पुरुषार्थ स्वतः करतात व इतरांना त्यानुसार आचरण करावयास लावतात तेच सर्वांना बोध करविणारे असतात. ॥ २ ॥