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ये अ॑ग्ने चन्द्र ते॒ गिरः॑ शु॒म्भन्त्यश्व॑राधसः। शुष्मे॑भिः शु॒ष्मिणो॒ नरो॑ दि॒वश्चि॒द्येषां॑ बृ॒हत्सु॑की॒र्तिर्बोध॑ति॒ त्मना॑ ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ye agne candra te giraḥ śumbhanty aśvarādhasaḥ | śuṣmebhiḥ śuṣmiṇo naro divaś cid yeṣām bṛhat sukīrtir bodhati tmanā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ये। अ॒ग्ने॒। च॒न्द्र॒। ते॒। गिरः॑। शु॒म्भन्ति॑। अश्व॑ऽराधसः। शु॒ष्मे॑भिः। शु॒ष्मिणः॒। नरः॑। दि॒वः। चि॒त्। येषा॑म्। बृ॒हत्। सु॒ऽकी॒र्त्तिः। बोध॑ति। त्मना॑ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:10» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:2» मन्त्र:4 | मण्डल:5» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वद्विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (चन्द्र) आनन्द देनेवाले (अग्ने) विद्वन् ! (ते) आपकी (अश्वराधसः) बिजुली आदि पदार्थों की सिद्धि करनेवाली (गिरः) धर्मसम्बन्धिनी वाणियों को (ये) जो (शुष्मेभिः) बलों के साथ (शुष्मिणः) बली (दिवः) कामना करते हुए (चित्) भी (नरः) मुख्य नायकजन (शुम्भन्ति) विराजते हैं और (येषाम्) जिनकी इन वाणियों को (बृहत्, सुकीर्त्तिः) बड़ी उत्तम प्रशंसायुक्त आप (त्मना) आत्मा से (बोधति) जानते हैं, वे मित्र हों ॥४॥
भावार्थभाषाः - जो विद्वान् सदृश गुण, कर्म और स्वभाववाले मित्र होकर अग्नि आदि पदार्थों की विद्याओं को परस्पर जनाते हैं, वे सिद्ध मनोरथवाले होते हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे चन्द्राग्ने ! तेऽश्वराधसो गिरो ये शुष्मेभिः सह शुष्मिणो दिवश्चिन्नरः शुम्भन्ति येषामेता गिरो बृहत्सुकीर्त्तिर्भवान् त्मना बोधति ते सखायो भवन्तु ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) (अग्ने) विद्वन् (चन्द्र) आह्लादप्रद (ते) तव (गिरः) धर्म्या वाचः (शुम्भन्ति) विराजन्ते (अश्वराधसः) विद्युदादिपदार्थसंसाधिकाः (शुष्मेभिः) बलैः (शुष्मिणः) बलिनः (नरः) नायकाः (दिवः) कामयमानाः (चित्) अपि (येषाम्) (बृहत्, सुकीर्त्तिः) महोत्तमप्रशंसः (बोधति) जानाति (त्मना) आत्मना ॥४॥
भावार्थभाषाः - ये विद्वांसस्तुल्यगुणकर्मस्वभावाः सखायो भूत्वाऽग्न्यादिपदार्थविद्यां परस्परं बोधयन्ति ते सिद्धकामा जायन्ते ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे विद्वानांप्रमाणे गुण, कर्म, स्वभावयुक्त असून मित्र बनतात व अग्नी इत्यादी पदार्थांची विद्या परस्पर जाणून घेतात ते सिद्धकाम असतात. ॥ ४ ॥