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त्वं नो॑ अग्ने अद्भुत॒ क्रत्वा॒ दक्ष॑स्य मं॒हना॑। त्वे अ॑सु॒र्य१॒॑मारु॑हत्क्रा॒णा मि॒त्रो न य॒ज्ञियः॑ ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ no agne adbhuta kratvā dakṣasya maṁhanā | tve asuryam āruhat krāṇā mitro na yajñiyaḥ ||

पद पाठ

त्वम्। नः॒। अ॒ग्ने॒। अ॒द्भु॒त॒। क्रत्वा॑। दक्ष॑स्य। मं॒हना॑। त्वे इति॑। अ॒सु॒र्य॑म्। आ। अ॒रु॒ह॒त्। क्रा॒णा। मि॒त्रः। न। य॒ज्ञियः॑ ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:10» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:2» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:1» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अद्भुत) आश्चर्ययुक्त उत्तम गुण, कर्म्म और स्वभाववाले (अग्ने) अध्यापक और उपदेशक ! (त्वम्) आप (क्रत्वा) बुद्धि से (दक्षस्य) चतुर विद्या और बल से युक्त पुरुष के (मंहना) महत्त्व से जैसे (त्वे) आप में (असुर्य्यम्) असुरसम्बन्धी कर्म (क्राणा) करता हुआ (मित्रः) मित्र (यज्ञियः) यज्ञ करने योग्य के (न) सदृश (आ, अरुहत्) बढ़ता है, वैसे (नः) हम लोगों को बढ़ाइये ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । वही उत्तम विद्वान् होता है, जो सब के सत्कार के लिये विद्या का उपदेश देता है ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे अद्भुताऽग्ने ! त्वं क्रत्वा दक्षस्य मंहना यथा त्वेऽसुर्य्यं क्राणा मित्रो यज्ञियो नाऽऽरुहत्तथा नः वर्धय ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (नः) अस्मान् (अग्ने) अध्यापकोपदेशक (अद्भुत) आश्चर्योत्तमगुणकर्मस्वभाव (क्रत्वा) प्रज्ञया (दक्षस्य) चतुरस्य विद्याबलयुक्तस्य (मंहना) महत्त्वेन (त्वे) त्वयि (असुर्य्यम्) असुरसम्बन्धिनम् (आ, अरुहत्) (क्राणा) कुर्वन् (मित्रः) (न) इव (यज्ञियः) यज्ञमनुष्ठातुमर्हः ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । स एवोत्तमो विद्वान् भवति यः सर्वेषां सत्काराय विद्योपदेशं ददाति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो सर्वांचा सत्कार व्हावा या उद्देश्याने उपदेश करतो तोच उत्तम विद्वान असतो. ॥ २ ॥