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अवो॑चाम क॒वये॒ मेध्या॑य॒ वचो॑ व॒न्दारु॑ वृष॒भाय॒ वृष्णे॑। गवि॑ष्ठिरो॒ नम॑सा॒ स्तोम॑म॒ग्नौ दि॒वी॑व रु॒क्ममु॑रु॒व्यञ्च॑मश्रेत् ॥१२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

avocāma kavaye medhyāya vaco vandāru vṛṣabhāya vṛṣṇe | gaviṣṭhiro namasā stomam agnau divīva rukmam uruvyañcam aśret ||

पद पाठ

अवो॑चाम। क॒वये॑। मेध्या॑य। वचः॑। व॒न्दारु॑। वृ॒ष॒भाय॑। वृष्णे॑। गवि॑ष्ठिरः। नम॑सा। स्तोम॑म्। अ॒ग्नौ। दि॒विऽइ॑व। रु॒क्मम्। उ॒रु॒ऽव्यञ्च॑म्। अ॒श्रे॒त् ॥१२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:1» मन्त्र:12 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:13» मन्त्र:6 | मण्डल:5» अनुवाक:1» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजा आदि मनुष्यो अतिथि ! हम लोग जो (गविष्ठिरः) उत्तम प्रकार शिक्षित वाणी में स्थित (नमसा) सत्कार वा अन्न आदि से (दिवीव) जैसे सूर्य्य में वैसे (अग्नौ) अग्नि में (रुक्मम्) प्रीतिकारक और प्रकाशयुक्त (उरुव्यञ्चम्) बहुत व्यापक और (स्तोमम्) प्रशंसा करने योग्य का (अश्रेत्) आश्रय करें उस (वृष्णे) सत्य उपदेश की वृष्टि करनेवाले (वृषभाय) बलिष्ठ (मेध्याय) पवित्र (कवये) विद्वान् जन के लिये (वन्दारु) प्रशंसा करने योग्य और धर्म्मसम्बन्धी (वचः) वचन का (अवोचाम) उपदेश करें ॥१२॥
भावार्थभाषाः - उन पुरुषों को ही विद्वान् अतिथि जन विशेष उपदेश देवें कि जो पवित्रात्मा विद्या में प्रीति करने और उत्तम क्रियाओं के जानने की इच्छा करनेवाले होवें और जो इन बातों से विपरीत अर्थात् रहित हों उनको अधिकार की योग्यता अर्थात् विशेष उपदेश के समझने का सामर्थ्य साधारण उपदेश के द्वारा प्राप्त करा के अधिकारी करें ॥१२॥ इस सूक्त में उपदेश सुनने और उपदेश के सुनानेवाले का गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह प्रथम सूक्त और तेरहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे राजादयो मनुष्या अतिथयो ! वयं यो गविष्ठिरो नमसा दिवीवाग्नौ रुक्ममुरुव्यञ्चं स्तोममश्रेत् तस्मै वृष्णे वृषभाय मेध्याय कवये वन्दारु वचोऽवोचाम ॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अवोचाम) उपदिशेम (कवये) विदुषे (मेध्याय) पवित्राय (वचः) (वन्दारु) प्रशंसनीयं धर्म्यम् (वृषभाय) बलिष्ठाय (वृष्णे) सत्योपदेशवर्षकाय (गविष्ठिरः) यो गवि सुशिक्षितायां वाचि तिष्ठति (नमसा) सत्कारेणान्नादिना वा (स्तोमम्) श्लाघनीयम् (अग्नौ) पावके (दिवीव) यथा सूर्ये (रुक्मम्) रुचिकरं भास्वरम् (उरुव्यञ्चम्) बहुव्याप्तिमन्तम् (अश्रेत्) आश्रयेत् ॥१२॥
भावार्थभाषाः - तानेव विद्वांसोऽतिथयो विशिष्टमुपदिशन्तु ये पवित्रात्मानो विद्याप्रियाः सत्क्रियां जिज्ञासवो भवेयुर्ये चातो विपरीतास्तानधिकारयोग्यतामुपदेशेन प्रापय्याऽधिकारिणः सम्पादयेयुरिति ॥१२॥ अत्रोपदेश्योपदेष्टृगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति प्रथमं सूक्तं त्रयोदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे पवित्र आत्मे, विद्येची रुची असणारे, सत्कार्य करण्याची इच्छा बाळगणारे असतात त्याच पुरुषांना विद्वान अतिथींनी विशेष उपदेश द्यावा. जे याच्या विपरीत असतात त्यांना त्यांचा अधिकार, जिज्ञासा व योग्यतेप्रमाणे उपदेश करून अधिकारी बनवावे. ॥ १२ ॥