वांछित मन्त्र चुनें

आ॒शुं दू॒तं वि॒वस्व॑तो॒ विश्वा॒ यश्च॑र्ष॒णीर॒भि। आ ज॑भ्रुः के॒तुमा॒यवो॒ भृग॑वाणं वि॒शेवि॑शे ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

āśuṁ dūtaṁ vivasvato viśvā yaś carṣaṇīr abhi | ā jabhruḥ ketum āyavo bhṛgavāṇaṁ viśe-viśe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ॒शुम्। दू॒तम्। वि॒वस्व॑तः। विश्वाः॑। यः। च॒र्ष॒णीः। अ॒भि। आ। ज॒भ्रुः॒। के॒तुम्। आ॒यवः॑। भृग॑वाणम्। वि॒शेऽवि॑शे॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:7» मन्त्र:4 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:6» मन्त्र:4 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:4


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अग्निविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो विद्वान् (विवस्वतः) सूर्य से (दूतम्) दूत के सदृश (आशुम्) शीघ्र चलने और (विशेविशे) प्रजा के निमित्त (भृगवाणम्) परिपाक के करनेवाले को जैसे (आयवः) ज्ञानवान् मनुष्य (विश्वाः) सम्पूर्ण (चर्षणीः) प्रकाशों और (केतुम्) प्रज्ञान को (अभि, आ, जभ्रुः) धारण करते हैं, वैसे धारण करता है, वह सम्पूर्ण आनन्दों से युक्त होता है ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सूर्य आदि से बिजुली आदि पदार्थ को ग्रहण करते हैं, वे प्रजा के लिये सुख देनेवाले होते हैं ॥४॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाग्निविषयमाह ॥

अन्वय:

यो विद्वान् विवस्वतो दूतमिवाशुं विशेविशे भृगवाणमायवो विश्वा यश्चर्षणीः केतुं चाऽभ्याजभ्रुरिव धरति स सर्वानन्दी जायते ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आशुम्) सद्योगामिनम् (दूतम्) दूतमिव (विवस्वतः) सूर्य्यात् (विश्वाः) समग्राः (यः) (चर्षणीः) प्रकाशान् (अभि) (आ) (जभ्रुः) धरन्ति (केतुम्) प्रज्ञानम् (आयवः) ज्ञानवन्तो मनुष्याः (भृगवाणम्) परिपाककर्त्तारम् (विशेविशे) प्रजायै ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः सूर्य्यादेर्विद्युतादीन् गृह्णन्ति ते प्रजायै सुखप्रदा भवन्ति ॥४॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे सूर्य इत्यादी पदार्थांपासून विद्युत इत्यादी पदार्थ ग्रहण करतात ती प्रजेला सुख देणारी असतात. ॥ ४ ॥