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अ॒यमि॒ह प्र॑थ॒मो धा॑यि धा॒तृभि॒र्होता॒ यजि॑ष्ठो अध्व॒रेष्वीड्यः॑। यमप्न॑वानो॒ भृग॑वो विरुरु॒चुर्वने॑षु चि॒त्रं वि॒भ्वं॑ वि॒शेवि॑शे ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayam iha prathamo dhāyi dhātṛbhir hotā yajiṣṭho adhvareṣv īḍyaḥ | yam apnavāno bhṛgavo virurucur vaneṣu citraṁ vibhvaṁ viśe-viśe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒यम्। इ॒ह। प्र॒थ॒मः। धा॒यि॒। धा॒तृऽभिः॑। होता॑। यजि॑ष्ठः। अ॒ध्व॒रेषु॑। ईड्यः। यम्। अप्न॑वानः। भृग॑वः। वि॒ऽरु॒रु॒चुः। वने॑षु। चि॒त्रम्। वि॒ऽभ्व॑म्। वि॒शेऽवि॑शे॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:7» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:6» मन्त्र:1 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब एकादश ऋचावाले सप्तम सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में सर्वगत अग्निशब्दार्थवाच्य व्यापक परमेश्वर के विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (इह) इस संसार में (धातृभिः) धारण करनेवालों से जो (अयम्) यह (प्रथमः) पहिला (होता) देने और (यजिष्ठः) अत्यन्त मेल करनेवाला (अध्वरेषु) नहीं हिंसा करने योग्य यज्ञों में (ईड्यः) स्तुति करने योग्य (धायि) धारण किया गया जिसको (विशेविशे) प्रजा-प्रजा के लिये (यम्) जिस (चित्रम्) अद्भुत (विभ्वम्) व्यापक परमात्मा को (अप्नवानः) पुत्र और पौत्रादिकों से युक्त (भृगवः) परिपक्व विज्ञानवाले लोग (वनेषु) याचना करने योग्य जङ्गलों में (विरुरुचुः) विशेष करके प्रकाशित करते अर्थात् अपने चित्त में रमाते हैं, उस परमात्मा का आप लोग ध्यान करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! इस संसार में परमेश्वर ही का आप लोगों को ध्यान करना योग्य है और जिसकी उपासना करके सांसारिक और पारमार्थिक सुख को प्राप्त होओगे, वही ईश्वर इस संसार में पूजा करने योग्य जानना चाहिये ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सर्वगतस्याग्निशब्दार्थवाच्यव्यापकस्येश्वरस्य विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! इह धातृभिर्य्योऽयं प्रथमो होता यजिष्ठोऽध्वरेष्वीड्यो धायि विशेविशे यं चित्रं विभ्वमप्नवानो भृगवो वनेषु विरुरुचुस्तं परमात्मानं यूयं ध्यायत ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) (इह) अस्मिन्संसारे (प्रथमः) आदिमः (धायि) धीयते (धातृभिः) धारकैः (होता) दाता (यजिष्ठः) अतिशयेन यष्टा सङ्गन्ता (अध्वरेषु) अहिंसनीयेषु यज्ञेषु (ईड्यः) स्तोतुमर्हः (यम्) (अप्नवानः) पुत्रपौत्रादियुक्ताः (भृगवः) परिपक्वविज्ञानाः (विरुरुचुः) विशेषेण प्रकाशन्ते (वनेषु) वननीयेषु जङ्गलेषु (चित्रम्) अद्भुतम् (विभ्वम्) परमात्मानम् (विशेविशे) प्रजायै प्रजायै ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! अस्मिन् संसारे परमेश्वर एव युष्माभिर्ध्येयो ज्ञेयोऽस्ति यमुपास्य सांसारिकं पारमार्थिकं सुखं प्राप्स्यन्ति स एवेश्वरोऽत्र पूजनीयो मन्तव्यः ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अग्नी व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वीच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! या जगात परमेश्वराचेच ध्यान करणे योग्य आहे व ज्याची उपासना करून सांसारिक व पारमार्थिक सुख प्राप्त करता येते तोच ईश्वर या संसारात पूजा करण्यायोग्य आहे, हे जाणले पाहिजे. ॥ १ ॥