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भ॒द्रा ते॑ अग्ने स्वनीक सं॒दृग्घो॒रस्य॑ स॒तो विषु॑णस्य॒ चारुः॑। न यत्ते॑ शो॒चिस्तम॑सा॒ वर॑न्त॒ न ध्व॒स्मान॑स्त॒न्वी॒३॒॑ रेप॒ आ धुः॑ ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

bhadrā te agne svanīka saṁdṛg ghorasya sato viṣuṇasya cāruḥ | na yat te śocis tamasā varanta na dhvasmānas tanvī repa ā dhuḥ ||

पद पाठ

भ॒द्रा। ते॒। अ॒ग्ने॒। सु॒ऽअ॒नी॒क॒। स॒म्ऽदृक्। घो॒रस्य॑। स॒तः। विषु॑णस्य। चारुः॑। न। यत्। ते॒। शो॒चिः। तम॑सा। वर॑न्त। न। ध्व॒स्मानः॑। त॒न्वि॑। रेपः॑। आ। धु॒रिति॑ धुः॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:6» मन्त्र:6 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:5» मन्त्र:1 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ईश्वरता लेकर राजगुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (स्वनीक) उत्तम सेनायुक्त (अग्ने) बिजुली के समान वर्त्तमान ! जो (ते) आपकी (घोरस्य) दुष्ट (सतः) श्रेष्ठ पुरुष की तथा (विषुणस्य) विषम की (चारुः) सुन्दर (भद्रा) कल्याण करनेवाली (संदृक्) समान दृष्टि है (यत्) जो (ते) आपका (शोचिः) प्रकाश (तमसा) रात्रि से (ध्वस्मानः) नाश करनेवाले शत्रु (न) नहीं (वरन्त) निवारण करते हैं, जो आपकी (तन्वि) विस्तीर्ण नीति उससे (रेपः) अपराध (न) नहीं (आ, धुः) सब प्रकार धारण करे, वह आप हम लोगों के राजा हूजिये ॥६॥
भावार्थभाषाः - जिस राजा की पक्षपातरहित प्रवृत्ति और जिसकी विस्तीर्ण नीति अविच्छिन्न वर्त्तमान है, उसके राज्य में कोई भी अपराध करने की इच्छा न करे ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वरतया राजगुणानाह ॥

अन्वय:

हे स्वनीकाग्ने ! या ते घोरस्य सतो विषुणस्य चारुर्भद्रा संदृगस्ति यत्ते शोचिस्तमसा ध्वस्मानो न वरन्त या ते तन्वि नीतिस्तया रेपो न आ धुः स त्वमस्माकं राजा भव ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (भद्रा) कल्याणकारिणी (ते) तव (अग्ने) विद्युदिव वर्त्तमान (स्वनीक) उत्तमसैन्य (संदृक्) समानदृष्टिः (घोरस्य) दुष्टस्य (सतः) सत्पुरुषस्य (विषुणस्य) विषमस्य (चारुः) (न) (यत्) (ते) (शोचिः) दीप्तिः (तमसा) रात्र्या (वरन्त) निवारयन्ति (न) (ध्वस्मानः) ध्वंसकाः शत्रवः (तन्वि) विस्तीर्णा (रेपः) अपराधम् (आ) (धुः) समन्ताद् दध्युः ॥६॥
भावार्थभाषाः - यस्य राज्ञः पक्षपातरहिता प्रवृत्तिर्यस्य विस्तीर्णा नीतिरविहता वर्त्तते तस्य राज्ये कोऽप्यपराधं कर्त्तुं नेच्छेत् ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो राजा भेदभाव करीत नाही व ज्याची नीती दृढ आहे, त्याच्या राज्यात कुणीही अपराध करण्याची इच्छा करीत नाही. ॥ ६ ॥