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स्ती॒र्णे ब॒र्हिषि॑ समिधा॒ने अ॒ग्ना ऊ॒र्ध्वो अ॑ध्व॒र्युर्जु॑जुषा॒णो अ॑स्थात्। पर्य॒ग्निः प॑शु॒पा न होता॑ त्रिवि॒ष्ट्ये॑ति प्र॒दिव॑ उरा॒णः ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

stīrṇe barhiṣi samidhāne agnā ūrdhvo adhvaryur jujuṣāṇo asthāt | pary agniḥ paśupā na hotā triviṣṭy eti pradiva urāṇaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्ती॒र्णे। ब॒र्हिषि॑। स॒म्ऽइ॒धा॒ने। अ॒ग्नौ। ऊ॒र्ध्वः। अ॒ध्व॒र्युः। जु॒जु॒षा॒णः। अ॒स्था॒त्। परि॑। अ॒ग्निः। प॒शु॒ऽपाः। न। होता॑। त्रि॒ऽवि॒ष्टि। ए॒ति॒। प्र॒ऽदिवः॑। उ॒राणः॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:6» मन्त्र:4 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:4» मन्त्र:4 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (समिधाने) प्रदीप्त (बर्हिषि) अन्तरिक्ष में वा (स्तीर्णे) आच्छादित (अग्नौ) सूर्य्यरूप अग्नि में (उराणः) बहुत कार्य्य करता हुआ (ऊर्ध्वः) उत्तम (अग्निः) सूर्य्याग्नि (परि, अस्थात्) सब ओर से स्थित हो वा (त्रिविष्टि) आकाश में (प्रदिवः) उत्तम प्रकाशों को (एति) प्राप्त होता है (पशुपाः) पशुओं की रक्षा करनेवाले के (न) सदृश (होता) यज्ञ करानेवाला है, वैसे ही (जुजुषाणः) सेवा करते हुए (अध्वर्युः) अपने को अहिंसनीय व्यवहार की इच्छा करनेवाले वर्त्ताव करो ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो लोग अहिंसा आदि कर्म्मों को कर और विद्वान् होकर परोपकारी हों, वे अन्तरिक्ष में सूर्य्य के सदृश उत्तम प्रकार प्रकाशित होवें ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथा समिधाने बर्हिषि स्तीर्णे अग्नावुराण ऊर्ध्वोऽग्निः सूर्य्यः पर्य्यस्थात् त्रिविष्टि प्र दिव एति पशुपा न होताऽस्ति तथैव जुजुषाणोऽध्वर्युर्वर्त्तेत ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (स्तीर्णे) आच्छादिते (बर्हिषि) अन्तरिक्षे (समिधाने) प्रदीप्ते (अग्नौ) सूर्य्यरूपे (ऊर्ध्वः) उत्कृष्टः (अध्वर्युः) य आत्मनोऽध्वरमहिंसनीयं व्यवहारं कर्त्तुमिच्छुः (जुजुषाणः) सेवमानः (अस्थात्) तिष्ठेत् (परि) (अग्निः) (पशुपाः) यः पशून् पाति (न) इव (होता) यज्ञानुष्ठाता (त्रिविष्टि) आकाशे (एति) गच्छति (प्रदिवः) सुप्रकाशान् (उराणः) बहु कुर्वन् ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये अहिंसादिकर्माणि कृत्वा विद्वांसो भूत्वा परोपकारिणः स्युस्तेऽन्तरिक्षे सूर्य्य इव सुप्रकाशिता भवेयुः ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे लोक अहिंसेने वागून विद्वान होतात व परोपकार करतात ते अंतरिक्षातील सूर्याप्रमाणे प्रकाशित होतात. ॥ ४ ॥