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अमू॑रो॒ होता॒ न्य॑सादि वि॒क्ष्व१॒॑ग्निर्म॒न्द्रो वि॒दथे॑षु॒ प्रचे॑ताः। ऊ॒र्ध्वं भा॒नुं स॑वि॒तेवा॑श्रे॒न्मेते॑व धू॒मं स्त॑भाय॒दुप॒ द्याम् ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

amūro hotā ny asādi vikṣv agnir mandro vidatheṣu pracetāḥ | ūrdhvam bhānuṁ savitevāśren meteva dhūmaṁ stabhāyad upa dyām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अमू॑रः। होता॑। नि। अ॒सा॒दि॒। वि॒क्षु। अ॒ग्निः॒। म॒न्द्रः। वि॒दथे॑षु। प्रऽचे॑ताः। ऊ॒र्ध्वम्। भा॒नुम्। स॒वि॒ताऽइ॑व। अ॒श्रे॒त्। मेता॑ऽइव। धू॒मम्। स्त॒भा॒य॒त्। उप॑। द्याम्॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:6» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:4» मन्त्र:2 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वानों के कर्त्तव्य को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि जो (अमूरः) मूर्खपन से रहित विद्वान् जन होता हुआ (होता) ग्रहण करनेवाला (विक्षु) प्रजाओं और (विदथेषु) संग्रामों में (अग्निः) अग्नि के सदृश (मन्द्रः) आनन्द देनेवाला (प्रचेताः) बुद्धिमान् वा बुद्धिदाता (द्याम्) प्रकाश और (उर्द्ध्वम्) ऊपर वर्त्तमान (भानुम्) किरण को (सवितेव) सूर्य्य के सदृश (धूमम्) धुएँ को (मेतेव) यथार्थ ज्ञानवाले के सदृश (स्तभायत्) रोकता है, न्याय का (अश्रेत्) आश्रय करे, वही राज्य कर्म्म में (उप, नि, असादि) स्थित होवे तो बहुत सुख को प्राप्त होवे ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य सूर्य्य के सदृश प्रतापी अग्नि के सदृश दुष्टों के दाहक और न्याय और नम्रता से प्रजाओं में चन्द्रमा के सदृश संग्राम में जीतनेवाले राजा को संस्थापित करें तो कभी दुःख को न प्राप्त होवें ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विदुषां कर्त्तव्यमाह ॥

अन्वय:

मनुष्यैर्योऽमूरो होता विक्षु विदथेष्वग्निरिव मन्द्रः प्रचेता द्यामूर्द्ध्वं भानुं सवितेव धूमं मेतेव स्तभायन् न्यायमश्रेत् स एव राज्यकर्म्मण्युप न्यसादि निषाद्येत तर्हि पुष्कलं सुखं प्राप्येत ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अमूरः) अमूढो विद्वान् सन्। अत्र वर्णव्यत्ययेन ढस्य रः। (होता) आदाता (नि) (असादि) (विक्षु) प्रजासु (अग्निः) पावक इव (मन्द्रः) आनन्दप्रदः (विदथेषु) सङ्ग्रामेषु (प्रचेताः) प्राज्ञः प्रज्ञापकः (ऊर्द्ध्वम्) उपरिस्थम् (भानुम्) किरणम् (सवितेव) सूर्य्य इव (अश्रेत्) आश्रयेत् (मेतेव) प्रमातेव (धूमम्) (स्तभायत्) स्तभ्नाति (उप) (द्याम्) प्रकाशम् ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यदि मनुष्याः सूर्य्यवत्प्रतापिनमग्निवद् दुष्टप्रदाहकं न्यायविनयाभ्यां प्रजासु चन्द्र इव संग्रामे विजेतारं राजानं संस्थापयेयुस्तर्हि कदाचिद्दुःखं न प्राप्नुयुः ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे, सूर्याप्रमाणे पराक्रमी, अग्नीप्रमाणे दुष्टांना दाहक व न्याय आणि नम्रतेने प्रजेमध्ये चंद्राप्रमाणे, युद्धात जिंकणाऱ्या राजाला संस्थापित करतील तर त्यांना कधी दुःख होणार नाही. ॥ २ ॥