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ऊ॒र्ध्व ऊ॒ षु णो॑ अध्वरस्य होत॒रग्ने॒ तिष्ठ॑ दे॒वता॑ता॒ यजी॑यान्। त्वं हि विश्व॑म॒भ्यसि॒ मन्म॒ प्र वे॒धस॑श्चित्तिरसि मनी॒षाम् ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ūrdhva ū ṣu ṇo adhvarasya hotar agne tiṣṭha devatātā yajīyān | tvaṁ hi viśvam abhy asi manma pra vedhasaś cit tirasi manīṣām ||

पद पाठ

ऊ॒र्ध्वः। ऊ॒म् इति॑। सु। नः॒। अ॒ध्व॒र॒स्य॒। हो॒तः॒। अग्ने॑। तिष्ठ॑। दे॒वऽता॑ता। यजी॑यान्। त्वम्। हि। विश्व॑म्। अ॒भि। असि॑। मन्म॑। प्र। वे॒धसः॑। चि॒त्। ति॒र॒सि॒। म॒नी॒षाम्॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:6» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:4» मन्त्र:1 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ग्यारह ऋचावाले छठे सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वानों के विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (होतः) दानकर्त्ता (अग्ने) अग्नि के सदृश विद्वान् ! (हि) जिससे (त्वम्) आप (देवताता) विद्वानों की पङ्क्ति में (यजीयान्) अत्यन्त यजन करनेवाले (नः) हम लोगों के (अध्वरस्य) नहीं हिंसा करने योग्य धर्मयुक्त व्यवहार के (ऊर्द्ध्वः) ऊपर अधिष्ठाताजन (वेधसः) बुद्धिमान् विद्वान् के सम्बन्ध में (विश्वम्) सम्पूर्ण जगत् और (मन्म) विज्ञान के (अभि) सम्मुख (असि) होते और (मनीषाम्, चित्) उत्तम बुद्धि ही के (तिरसि) पार होते हो (उ, सु, प्र, तिष्ठ) सो ही स्थित हूजिये ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो लोग विद्वानों के समीप से विद्याओं को प्राप्त होकर सब के रक्षा करने और बुद्धि देनेवाले होवें, उन्हीं लोगों की प्रतिष्ठा करो ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्विषयमाह ॥

अन्वय:

हे होतरग्ने ! त्वं हि देवताता यजीयान्नोऽध्वरस्योर्द्ध्वो वेधसो विश्वं मन्माऽभ्यसि मनीषां चित् तिरसि स उ सु प्र तिष्ठ ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ऊर्द्ध्वः) उपर्य्यधिष्ठाता (उ) वितर्के (सु) शोभने (नः) अस्माकम् (अध्वरस्य) अहिंसनीयस्य धर्म्यस्य व्यवहारस्य (होतः) दातः (अग्ने) पावक इव विद्वन् (तिष्ठ) (देवताता) देवतातौ (यजीयान्) अतिशयेन यष्टा (त्वम्) (हि) यतः (विश्वम्) सर्वं जगत् (अभि) आभिमुख्ये (असि) भवसि (मन्म) विज्ञानम् (प्र) (वेधसः) मेधाविनो विपश्चितः (चित्) एव (तिरसि) तरसि (मनीषाम्) प्रज्ञाम् ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! ये विदुषां सकाशाद्विद्याः प्राप्य सर्वस्य रक्षकाः प्रज्ञाप्रदातारः स्युस्तेषामेव प्रतिष्ठां कुरुत ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात विद्वान व ईश्वराच्या गुणाचे वर्णन असल्यामुळे या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.

भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जे लोक विद्वानाकडून विद्या शिकून सर्वांचे रक्षक व बुद्धिदाता बनतात त्यांचाच सन्मान करा. ॥ १ ॥