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त्रिधा॑ हि॒तं प॒णिभि॑र्गु॒ह्यमा॑नं॒ गवि॑ दे॒वासो॑ घृ॒तमन्व॑विन्दन्। इन्द्र॒ एकं॒ सूर्य॒ एकं॑ जजान वे॒नादेकं॑ स्व॒धया॒ निष्ट॑तक्षुः ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tridhā hitam paṇibhir guhyamānaṁ gavi devāso ghṛtam anv avindan | indra ekaṁ sūrya ekaṁ jajāna venād ekaṁ svadhayā niṣ ṭatakṣuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्रिधा॑। हि॒तम्। प॒णिऽभिः॑। गु॒ह्यमा॑नम्। गवि॑। दे॒वासः॑। घृ॒तम्। अनु॑। अ॒वि॒न्द॒न्। इन्द्रः॑। एक॑म्। सूर्यः॑। एक॑म्। ज॒जा॒न॒। वे॒नात्। एक॑म्। स्व॒धया॑। निः। त॒त॒क्षुः॒ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:58» मन्त्र:4 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:10» मन्त्र:4 | मण्डल:4» अनुवाक:5» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सूर्यदृष्टान्त से विद्वद्विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (देवासः) विद्वान् जन (पणिभिः) प्रशंसित व्यवहार करनेवालों के साथ (गवि) वाणी में (गुह्यमानम्) गुप्त कराया जाता (त्रिधा) तीन प्रकारों से (हितम्) स्थित और (घृतम्) घृत के सदृश आनन्द देनेवाले विज्ञान को (अनु, अविन्दन्) अनुकूल प्राप्त होते और (स्वधया) अपनी धारण की हुई बुद्धि से (निः, ततक्षुः) निरन्तर विस्तार करते हैं। और जैसे (इन्द्रः) बिजुली (वेनात्) सुन्दर परमात्मा के समीप से (एकम्) अव्यक्त अर्थात् प्रकृति को और (सूर्यः) सूर्य (एकम्) एक को (जजान) उत्पन्न करता है, वैसे आप लोग भी (एकम्) निरन्तर सुख अर्थात् मोक्ष को सिद्ध करो ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे श्रेष्ठ व्यवहारों के साथ वर्त्तमान विद्वान् जन, उत्तम प्रकार शिक्षित वाणी और बुद्धि को तथा बिजुली आदि की विद्या को प्राप्त हो परमेश्वर को जान और उसकी आज्ञा पालन करके सुख का विस्तार करते हैं, वैसे ही सब लोग अच्छा आचरण करें ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सूर्यदृष्टान्तेन विद्वद्विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथा देवासः पणिभिः सह गवि गुह्यमानं त्रिधा हितं घृतमिवान्वविन्दन् स्वधया निष्टतक्षुर्यथेन्द्रो वेनादेकं सूर्यश्चैकं जजान तथा यूयमप्येकमनुतिष्ठत ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्रिधा) त्रिभिः प्रकारैः (हितम्) स्थितम् (पणिभिः) प्रशंसितैर्व्यवहर्त्तृभिः (गुह्यमानम्) गोप्यमानम् (गवि) वाचि (देवासः) विद्वांसः (घृतम्) घृतमिवानन्दप्रदं विज्ञानम् (अनु) (अविन्दन्) लभन्ते (इन्द्रः) विद्युत् (एकम्) (सूर्यः) सविता (एकम्) निःश्रेयसम् (जजान) जनयति (वेनात्) कमनीयात् परमात्मनः सकाशात् (एकम्) अव्यक्तम् (स्वधया) स्वकीयया धृतया प्रज्ञया (निः) नितराम् (ततक्षुः) विस्तृण्वन्ति ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा प्रशंसितैर्व्यवहारैः सह वर्त्तमाना विद्वांसः सुशिक्षितां वाचं प्रज्ञां च लब्ध्वा विद्युदादिविद्यां प्राप्य परमेश्वरं बुद्ध्वा तदाज्ञामनुसृत्य सुखं वितन्वन्ति तथैव सर्वे समाचरन्तु ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! श्रेष्ठ व्यवहार करणारे विद्वान सुशिक्षित वाणी व बुद्धी प्राप्त करून विद्युत इत्यादी विद्या शिकतात व परमेश्वराला जाणून त्याच्या आज्ञेचे पालन करून सुख मिळवितात, तसेच सर्व लोकांनी वागावे. ॥ ४ ॥