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म॒ही मि॒त्रस्य॑ साधथ॒स्तर॑न्ती॒ पिप्र॑ती ऋ॒तम्। परि॑ य॒ज्ञं नि षे॑दथुः ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mahī mitrasya sādhathas tarantī pipratī ṛtam | pari yajñaṁ ni ṣedathuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

म॒ही इति॑। मि॒त्रस्य॑। सा॒ध॒थः॒। तर॑न्ती॒ इति॑। पिप्र॑ती॒ इति॑। ऋ॒तम्। परि॑। य॒ज्ञम्। नि। से॒द॒थुः॒ ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:56» मन्त्र:7 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:8» मन्त्र:7 | मण्डल:4» अनुवाक:5» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर शिल्पविद्या विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! जो (तरन्ती) दुःख से पार उतारती और (पिप्रती) सम्पूर्ण आनन्द को पूर्ण करती हुईं (मही) बड़े सूर्य और पृथिवी (ऋतम्) सत्यकारणरूप (यज्ञम्) संग करने अर्थात् आरम्भ करने योग्य यज्ञ को (परि) सब प्रकार से (नि, सेदथुः) सिद्धि करती और (मित्रस्य) सब के मित्र के कार्य्यों को (साधथः) सिद्ध करती, उन सूर्य्य और भूमि को यथावत् जान के उनका संयोग करो अर्थात् काम में लाओ ॥७॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये सब के आधारभूत सब कार्य्य सिद्ध करनेवाली सूर्य और पृथिवी को जान के अभीष्ट कार्य्यों को सिद्ध करें ॥७॥ इस सूक्त में सूर्य और पृथिवी के और शिल्पविद्या शिक्षा वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥७॥ यह छप्पनवाँ सूक्त और आठवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः शिल्पविद्याविषयमाह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! ये तरन्ती पिप्रती मही ऋतं यज्ञं परि नि षेदथुर्मित्रस्य कार्याणि साधथस्ते यथावद्विज्ञाय सम्प्रयुग्ध्वम् ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मही) महत्यौ (मित्रस्य) सर्वस्य सुहृदः (साधथः) साध्नुतः। अत्र व्यत्ययः। (तरन्ती) दुःखं प्लावयन्त्यौ (पिप्रती) सर्वानन्दं प्रपूरयन्त्यौ (ऋतम्) सत्यं कारणम् (परि) सर्वतः (यज्ञम्) सङ्गन्तव्यम् (नि) (सेदथुः) निषीदतः ॥७॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः सर्वाधारे सर्वकार्यसाधिके द्यावापृथिवी विज्ञायाभीष्टानि कार्याणि साधनीयानीति ॥७॥ अत्र द्यावापृथिव्योर्गुणशिल्पविद्याशिक्षावर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥७॥ इति षट्पञ्चाशत्तमं सूक्तमष्टमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी सर्वांचे आधारभूत व सर्व कार्यसाधक सूर्य व पृथ्वी यांना जाणून अभीष्ट कार्य सिद्ध करावे. ॥ ७ ॥