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को व॑स्त्रा॒ता व॑सवः॒ को व॑रू॒ता द्यावा॑भूमी अदिते॒ त्रासी॑थां नः। सही॑यसो वरुण मित्र॒ मर्ता॒त्को वो॑ऽध्व॒रे वरि॑वो धाति देवाः ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ko vas trātā vasavaḥ ko varūtā dyāvābhūmī adite trāsīthāṁ naḥ | sahīyaso varuṇa mitra martāt ko vo dhvare varivo dhāti devāḥ ||

पद पाठ

कः। वः॒। त्रा॒ता। व॒स॒वः॒। कः॒। व॒रू॒ता। द्यावा॑भूमी॒ इति॑। अ॒दि॒ते॒। त्रासी॑थाम्। नः॒। सही॑यसः। व॒रु॒ण॒। मि॒त्र॒। मर्ता॑त्। कः। वः॒। अ॒ध्व॒रे। वरि॑वः। धा॒ति॒। दे॒वाः ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:55» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:6» मन्त्र:1 | मण्डल:4» अनुवाक:5» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब दश ऋचावाले पचपनवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् के गुणों का वर्णन करते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वरुण) उत्तम विद्वन् अध्यापक (मित्र) सम्पूर्ण मित्रों के उपदेशक (सहीयसः) अत्यन्त सहनेवाले बलिष्ठ ! (नः) हम लोगों के और (वः) आप लोगों के (अध्वरे) सत्य व्यवहार में (कः) कौन (मर्त्तात्) मनुष्य से (वरिवः) सेवन को (धाति) धारण करता है (द्यावाभूमी) प्रकाश और पृथिवी के सदृश आप दोनों हम लोगों की (त्रासीथाम्) रक्षा करो हे (वसवः) रहनेवाले (देवाः) विद्वानो ! (वः) आप लोगों का (कः) कौन (त्राता) रक्षक है। हे (अदिते) नहीं नाश होनेवाले जगदीश्वर ! आप का (कः) कौन (वरूता) स्वीकार करनेवाला है ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो परमेश्वर की आज्ञा का पालन करता है, वह परमेश्वर से स्वीकार किया जाता है। हे मनुष्यो ! जो हमारा और आप लोगों का रक्षक है, वही हम लोगों से सेवा करने योग्य है और जो अहिंसा से सब मनुष्यों को विज्ञान में धारण करते हैं, वह और वे सदा सत्कार करने योग्य हैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्गुणानाह ॥

अन्वय:

हे वरुण मित्र सहीयसो ! नो वोऽध्वरे को मर्त्ताद्वरिवो धाति द्यावाभूमी इव युवामस्मान् त्रासीथाम्। हे वसवो देवा ! वः वस्त्राताऽस्ति। हे अदिते जगदीश्वर ! तव को वरूताऽस्ति ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (कः) (वः) युष्माकम् (त्राता) रक्षकः (वसवः) ये वसन्ति तत्सम्बुद्धौ (कः) (वरूता) स्वीकर्त्ता (द्यावाभूमी) प्रकाशपृथिव्यौ (अदिते) अविनाशिन् (त्रासीथाम्) रक्षेथाम् (नः) अस्माकम् (सहीयसः) अतिशयेन सहनशीलान् बलिष्ठान् (वरुण) उत्कृष्टविद्वन्नध्यापक (मित्र) सर्वसुहृदुपदेशक (मर्त्तात्) मनुष्यात् (कः) (वः) युष्माकम् (अध्वरे) सत्ये व्यवहारे (वरिवः) परिचरणं सेवनम् (धाति) दधाति (देवाः) विद्वांसः ॥१॥
भावार्थभाषाः - यो हि परमेश्वराज्ञां पालयति स परमेश्वरेण स्वीक्रियते। हे मनुष्या ! योऽस्माकं युष्माकञ्च रक्षकः स एवाऽस्माभिर्भजनीयः। येऽहिंसया सर्वान् मनुष्यान् विज्ञाने दधति स ते च सदैव सत्कर्त्तव्याः ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात विद्वानाच्या गुणांचे वर्णन असल्याने या सूक्ताच्या अर्थाची या पूर्वीच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - जो परमेश्वराची आज्ञा पाळतो त्याला परमेश्वर स्वीकारतो. हे माणसांनो ! जो तुमचा आमचा रक्षक आहे त्याचेच भजन करणे योग्य आहे. जे अहिंसेने सर्व माणसांना विज्ञान देतात त्यांचा सत्कार करणे योग्य आहे. ॥ १ ॥