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आग॑न्दे॒व ऋ॒तुभि॒र्वर्ध॑तु॒ क्षयं॒ दधा॑तु नः सवि॒ता सु॑प्र॒जामिष॑म्। स नः॑ क्ष॒पाभि॒रह॑भिश्च जिन्वतु प्र॒जाव॑न्तं र॒यिम॒स्मे समि॑न्वतु ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

āgan deva ṛtubhir vardhatu kṣayaṁ dadhātu naḥ savitā suprajām iṣam | sa naḥ kṣapābhir ahabhiś ca jinvatu prajāvantaṁ rayim asme sam invatu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। अ॒ग॒न्। दे॒वः। ऋ॒तुऽभिः॑। वर्ध॑तु। क्षय॑म्। दधा॑तु। नः॒। स॒वि॒ता। सु॒ऽप्र॒जाम्। इष॑म्। सः। नः॒। क्ष॒पाभिः॑। अह॑ऽभिः। च॒। जि॒न्व॒तु॒। प्र॒जाऽव॑न्तम्। रयिम्। अ॒स्मे इति॑। सम्। इ॒न्व॒तु॒ ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:53» मन्त्र:7 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:4» मन्त्र:7 | मण्डल:4» अनुवाक:5» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (सविता) सम्पूर्ण जगत् का उत्पन्न करनेवाला (देवः) निरन्तर प्रकाशमान जगदीश्वर (ऋतुभिः) वसन्त आदि ऋतुओं से (नः) हम लोगों के (क्षयम्) निवास की (वर्धतु) वृद्धि करें और हम लोगों को (आ) सब प्रकार से (अगन्) प्राप्त हो (सुप्रजाम्) उत्तम प्रजा और (इषम्) अन्न आदि को (दधातु) धारण करे (सः) वह (क्षपाभिः) रात्रियों और (अहभिः) दिनों के साथ (च) भी (नः) हम लोगों को (जिन्वतु) प्रसन्न और आनन्दित करे और (अस्मे) हम लोगों के लिये (प्रजावन्तम्) बहुत प्रजाओं से युक्त (रयिम्) धन को (सम्, इन्वतु) अच्छे प्रकार देवे ॥७॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो परमात्मा सब दिन, सब रात्रियों में सब जगत् की सब प्रकार से रक्षा करता है, सब पदार्थों को रच के हम लोगों के लिये देकर हम लोगों को निरन्तर आनन्दित करता है, वह हम लोगों को सदा उपासना करने योग्य है ॥७॥ इस सूक्त में सविता अर्थात् सकल जगत् के उत्पन्न करनेवाले परमात्मा के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥७॥ यह तिरपनवाँ सूक्त और चौथा वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यस्सविता देवो जगदीश्वर ऋतुभिर्नः क्षयं वर्धत्वस्मानागन् सुप्रजामिषं च दधातु स क्षपाभिरहभिश्च नो जिन्वत्वस्मे प्रजावन्तं रयिं समिन्वतु ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (अगन्) आगच्छतु (देवः) देदीप्यमानः (ऋतुभिः) वसन्तादिभिः (वर्धतु) वर्धताम्। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (क्षयम्) निवासम् (दधातु) (नः) अस्माकम् (सविता) सकलजगज्जनकः (सुप्रजाम्) उत्तमां प्रजाम् (इषम्) अन्नादिकम् (सः) (नः) अस्मान् (क्षपाभिः) रात्रिभिः (अहभिः) दिनैः सह (च) (जिन्वतु) प्रीणात्वानन्दतु (प्रजावन्तम्) बहुप्रजायुक्तम् (रयिम्) धनम् (अस्मे) अस्मभ्यम् (सम्) (इन्वतु) ददातु ॥७॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यः परमात्मा सर्वेष्वहोरात्रेषु सर्वं जगत्सर्वथा रक्षति सर्वान् पदार्थान् निर्मायाऽस्मभ्यं दत्वाऽस्मान् सततमानन्दयति सोऽस्माभिः सदैवोपासनीय इति ॥७॥ अत्र सवितृगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥७॥ इति त्रिपञ्चाशत्तमं सूक्तं चतुर्थो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! जो परमात्मा रात्रंदिवस सर्व जगाचे रक्षण करतो. सर्व पदार्थ उत्पन्न करून आपल्याला देतो व निरंतर आनंदित करतो त्याचीच उपासना करणे योग्य आहे. ॥ ७ ॥