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आप्रा॒ रजां॑सि दि॒व्यानि॒ पार्थि॑वा॒ श्लोकं॑ दे॒वः कृ॑णुते॒ स्वाय॒ धर्म॑णे। प्र बा॒हू अ॑स्राक्सवि॒ता सवी॑मनि निवे॒शय॑न्प्रसु॒वन्न॒क्तुभि॒र्जग॑त् ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

āprā rajāṁsi divyāni pārthivā ślokaṁ devaḥ kṛṇute svāya dharmaṇe | pra bāhū asrāk savitā savīmani niveśayan prasuvann aktubhir jagat ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। अ॒प्राः॒। रजां॑सि। दि॒व्यानि॑। पार्थि॑वा। श्लोक॑म्। दे॒वः। कृ॒णु॒ते॒। स्वाय॑। धर्म॑णे। प्र। बा॒हू इति॑। अ॒स्रा॒क्। स॒वि॒ता। सवी॑मनि। नि॒ऽवे॒शय॑न्। प्र॒ऽसु॒वन्। अ॒क्तुऽभिः॑। जग॑त् ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:53» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:4» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:5» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (सविता) सम्पूर्ण जगत् का उत्पन्न करनेवाला (देवः) प्रकाशमान विद्वान् (सवीमनि) बड़े ऐश्वर्य्य में (अक्तुभिः) रात्रियों के साथ (जगत्) सम्पूर्ण संसार को (निवेशयन्) प्रवेश कराता और (प्रसुवन्) उत्पन्न करता हुआ (बाहू) भुजाओं को (अस्राक्) उत्पन्न करता वह विद्वान् (स्वाय) अपनी (धर्म्मणे) धर्म्म की उन्नति के लिये (श्लोकम्) श्लाघा प्रशंसा करने योग्य वाणी को (प्र, कृणुते) उत्पन्न करता, परमात्मा और (दिव्यानि) शुद्ध (पार्थिवा) पृथिवी में विदित (रजांसि) लोकों को (आ, अप्राः) व्याप्त होता है ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो जगदीश्वर सम्पूर्ण जगत् में अभिव्याप्त हो और उस जगत् को रच के धर्म्म और वेदवाणी का प्रचार करके संसार को व्यवस्थित अर्थात् जैसा चाहिये वैसा नियत करता, उसीको सब का स्वामी जानके निरन्तर उपासना करो ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यः सविता देवः सवीमन्यक्तुभिर्जगन्निवेशयन् प्रसुवन् बाहू अस्राक् स देवः स्वाय धर्म्मणे श्लोकं प्र कृणुते सविता दिव्यानि पार्थिवा रजांस्याऽऽप्राः ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (अप्राः) व्याप्नोति (रजांसि) लोकान् (दिव्यानि) शुद्धानि (पार्थिवा) पृथिव्यां विदितानि (श्लोकम्) श्लाघनीयां वाचम् (देवः) (कृणुते) (स्वाय) (धर्म्मणे) धर्मोन्नतये (प्र) (बाहू) भुजौ (अस्राक्) यः सृजति (सविता) सकलजगदुत्पादकः (सवीमनि) महैश्वर्ये (निवेशयन्) (प्रसुवन्) उत्पादयन् (अक्तुभिः) रात्रिभिः सह (जगत्) सर्वं विश्वम् ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यो जगदीश्वरः सर्वं जगदभिव्याप्य निर्माय धर्म्मं वेदवाणीं प्रचार्य्य जगद् व्यवस्थापयति तमेव सर्वस्वामिनं विज्ञाय सततमुपाध्वम् ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जो जगदीश्वर संपूर्ण जगात व्याप्त असून जगाची उत्पत्ती करतो. धर्म व वेदवाणीचा प्रचार करून जगाचा प्रबंध करतो त्यालाच सर्वांचा स्वामी जाणून सदैव उपासना करा. ॥ ३ ॥