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उ॒त सखा॑स्य॒श्विनो॑रु॒त मा॒ता गवा॑मसि। उ॒तोषो॒ वस्व॑ ईशिषे ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uta sakhāsy aśvinor uta mātā gavām asi | utoṣo vasva īśiṣe ||

पद पाठ

उ॒त। सखा॑। अ॒सि॒। अ॒श्विनोः॑। उ॒त। मा॒ता। गवा॑म्। अ॒सि॒। उ॒त। उ॒षः॒। वस्वः॑। ई॒शि॒षे॒ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:52» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:3» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:5» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (उषः) प्रातर्वेला के सदृश वर्त्तमान सुन्दर स्त्री ! तू अपने पति की (सखा) सखी के सदृश वर्त्तमान (असि) है (उत) और (अश्विनोः) सूर्य्य और चन्द्रमा के सदृश अध्यापक और उपदेशक की सखी (असि) है (उत) और (गवाम्) किरण वा गौओं की (माता) माता (उत) और (वस्वः) धन की (ईशिषे) इच्छा करती है ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। वही स्त्री सुख देनेवाली जो मित्र के सदृश आज्ञा मानने और सेवा करनेवाली है, वही प्रातर्वेला के सदृश कुल की प्रकाशिका होती है ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे उष इव वर्त्तमाने स्त्रि ! त्वं पत्युः सखेवासि उताऽश्विनोः सखासि उत गवां मातासि उत वस्व ईशिषे ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) (सखा) (असि) (अश्विनोः) सूर्य्याचन्द्रमसोरिवाऽध्यापकोपदेशकयोः (उत) (माता) जननीव (गवाम्) किरणानां धेनूनां वा (असि) (उत) (उषः) उष इव शुम्भमाने (वस्वः) धनस्य (ईशिषे) इच्छसि ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सैव स्त्री सुखप्रदा या सुहृद्वदाज्ञानुकारिणी सेविका वर्त्तते सैवोषर्वत् कुलप्रकाशिका भवति ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी मित्रासारखी असून आज्ञाधारक व सेवा करणारी असते, तीच स्त्री सुखदायक असते. तीच उषेप्रमाणे कुल प्रकाशित करणारी असते. ॥ ३ ॥