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स इत्क्षे॑ति॒ सुधि॑त॒ ओक॑सि॒ स्वे तस्मा॒ इळा॑ पिन्वते विश्व॒दानी॑म्। तस्मै॒ विशः॑ स्व॒यमे॒वा न॑मन्ते॒ यस्मि॑न्ब्र॒ह्मा राज॑नि॒ पूर्व॒ एति॑ ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa it kṣeti sudhita okasi sve tasmā iḻā pinvate viśvadānīm | tasmai viśaḥ svayam evā namante yasmin brahmā rājani pūrva eti ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। इत्। क्षे॒ति॒। सुऽधि॑तः। ओक॑सि। स्वे। तस्मै॑। इळा॑। पि॒न्व॒ते॒। वि॒श्व॒ऽदानी॑म्। तस्मै॑। विशः॑। स्व॒यम्। ए॒व। न॒म॒न्ते॒। यस्मि॑न्। ब्र॒ह्मा। राज॑नि। पूर्वः॑। एति॑ ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:50» मन्त्र:8 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:27» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:5» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो जन परमेश्वर का भजन करता है (सः, इत्) वही (सुधितः) उत्तम प्रकार तृप्त हुआ (स्वे) अपने (ओकसि) निवासस्थान में (क्षेति) निवास करता है तथा (विश्वदानीम्) सब काल में (तस्मै) उसके लिये (इळा) प्रशंसित वाणी वा भूमि (पिन्वते) सेवन करती है (यस्मिन्) जिस (राजनि) प्रकाशमान परमात्मा में (ब्रह्मा) चार वेद का जाननेवाला (पूर्वः) अनादि से हुआ प्रथम (एति) प्राप्त होता है (तस्मै) उस राजा के लिये (विशः) प्रजा (स्वयम्) (एवा) आप ही (नमन्ते) नम्र होती हैं ॥८॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो अन्य सब का त्याग करके एक परमेश्वर ही की आप लोग सेवा करें तो आप लोगों में लक्ष्मी, राज्य, प्रतिष्ठा और यश सदा ही निवास करें ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यो जनः परमेश्वरं भजते स इत् सुधितः सन् स्व ओकसि क्षेति विश्वदानीं तस्मा इळा पिन्वते यस्मिन् राजनि ब्रह्मा पूर्व एति तस्मै राज्ञे विशः स्वयमेवा नमन्ते ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (इत्) एव (क्षेति) निवसति (सुधितः) सुहितस्तृप्तः। अत्र सुधितवसुधितेति सूत्रेण हस्य धः। (ओकसि) निवासस्थाने (स्वे) स्वकीये (तस्मै) (इळा) प्रशंसिता वाग्भूमिर्वा (पिन्वते) सेवते (विश्वदानीम्) सर्वस्मिन् काले (तस्मै) (विशः) प्रजाः (स्वयम्) (एवा) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (नमन्ते) नम्रीभूता भवन्ति (यस्मिन्) परमात्मनि (ब्रह्मा) चतुर्वेदवित् (राजनि) प्रकाशमाने (पूर्वः) अनादिभूत आदिमः (एति) प्राप्नोति ॥८॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यद्यन्यान् सर्वान् विहायैकं परमेश्वरमेव यूयं भजत तर्हि युष्मासु श्री राज्यं प्रतिष्ठा यशश्च सदैव निवसेत् ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! इतर सर्व गोष्टींचा त्याग करून एका परमेश्वराचा स्वीकार केल्यास तुम्हाला सदैव श्री, राज्य, प्रतिष्ठा व यश मिळेल. ॥ ८ ॥