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वै॒श्वा॒न॒राय॑ मी॒ळ्हुषे॑ स॒जोषाः॑ क॒था दा॑शेमा॒ग्नये॑ बृ॒हद्भाः। अनू॑नेन बृह॒ता व॒क्षथे॒नोप॑ स्तभायदुप॒मिन्न रोधः॑ ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vaiśvānarāya mīḻhuṣe sajoṣāḥ kathā dāśemāgnaye bṛhad bhāḥ | anūnena bṛhatā vakṣathenopa stabhāyad upamin na rodhaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वै॒श्वा॒न॒राय॑। मी॒ळ्हुषे॑। स॒ऽजोषाः॑। क॒था। दा॒शे॒म॒। अ॒ग्नये॑। बृ॒हत्। भाः। अनू॑नेन। बृ॒ह॒ता। व॒क्षथे॑न। उप॑। स्त॒भा॒य॒त्। उ॒प॒ऽमित्। न। रोधः॑॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:5» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:1» मन्त्र:1 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब तृतीयाष्टक में पाँचवें अध्याय और चतुर्थ मण्डल में पन्द्रह ऋचावाले पञ्चम सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अग्नि के दृष्टान्त से राजविषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! जो आप (बृहत्) बड़े (भाः) शोभित नापनेवाले और (रोधः) रोकने को (उपमित्) अलग करता है उसके (न) समान (अनूनेन) न्यूनता से रहित (बृहता) बड़े (वक्षथेन) क्रोध से राज्य को (उप, स्तभायत्) रोके उस (वैश्वानराय) सब में नायक (मीळ्हुषे) सेचन करनेवाले (अग्नये) अग्नि के सदृश वर्त्तमान विद्वान् राजा के लिये (सजोषाः) तुल्य प्रीति के सेवन करनेवाले हम लोग सुख को (कथा) किस प्रकार से (दाशेम) देवें ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो लोग सूर्य और बिजुली के सदृश उत्तम गुणों के प्रकाश करने और जल के रोकनेवाले पदार्थ के सदृश दुष्टों के रोकनेवाले और अपने सदृश सुख, दुःख, हानि और लाभ को जानते हुए राज्य करते हैं, वे दण्ड और न्याय को चला सकते हैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाग्निदृष्टान्तेन राजविषयमाह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! यस्त्वं बृहद्भा उपमिद्रोधो नानूनेन बृहता वक्षथेन राज्यमुप स्तभायत्तस्मै वैश्वानराय मीळ्हुषेऽग्नये सजोषा वयं सुखं कथा दाशेम ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वैश्वानराय) विश्वेषु नायकाय (मीळ्हुषे) सेचकाय (सजोषाः) समानप्रीतिसेवनाः। अत्र वचनव्यत्ययेनैकवचनम्। (कथा) केन प्रकारेण (दाशेम) दद्याम (अग्नये) वह्निवद्वर्त्तमानाय विदुषे राज्ञे (बृहत्) महत् (भाः) यो भाति सः (अनूनेन) न्यूनतारहितेन (बृहता) महता (वक्षथेन) रोषेण (उप) (स्तभायत्) स्तभ्नीयात् (उपमित्) य उपमिनोति सः (न) इव (रोधः) रोधनम् ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सूर्यविद्युद्वत्सद्गुणप्रकाशका जलावरणमिव दुष्टानां निरोधकाः स्वात्मवत्सुखदुःखहानिलाभाञ्जानन्तो राज्यं कुर्वन्ति ते दण्डन्यायं प्रचालयितुं शक्नुवन्ति ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात बुद्धिमान राजा, अध्यापक, उपदेशक प्रश्नकर्ता व समाधानकर्त्याचे गुण वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे लोक सूर्य व विद्युतप्रमाणे उत्तम गुणांचा प्रकाश करणारे, जल रोखणाऱ्या पदार्थांसारखे दुष्टांना रोखणारे व आपल्यासारखे सुख-दुःख, हानी व लाभ जाणून राज्य करतात ते दंड व न्याय करू शकतात. ॥ १ ॥