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प्र वा॑मवोचमश्विना धियं॒धा रथः॒ स्वश्वो॑ अ॒जरो॒ यो अस्ति॑। येन॑ स॒द्यः परि॒ रजां॑सि या॒थो ह॒विष्म॑न्तं त॒रणिं॑ भो॒जमच्छ॑ ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra vām avocam aśvinā dhiyaṁdhā rathaḥ svaśvo ajaro yo asti | yena sadyaḥ pari rajāṁsi yātho haviṣmantaṁ taraṇim bhojam accha ||

पद पाठ

प्र। वा॒म्। अ॒वो॒च॒म्। अ॒श्वि॒ना॒। धि॒य॒म्ऽधाः। रथः॑। सु॒ऽअश्वः॑। अ॒जरः॑। यः। अस्ति॑। येन॑। स॒द्यः। परि॑। रजां॑सि। या॒थः। ह॒विष्म॑न्तम्। त॒रणि॑म्। भो॒जम्। अच्छ॑ ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:45» मन्त्र:7 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:21» मन्त्र:7 | मण्डल:4» अनुवाक:4» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अश्विना) अध्यापक और उपदेशक जनो ! (यः) जो (स्वश्वः) उत्तमोत्तम घोड़ों से युक्त (अजरः) वृद्धावस्थारहित (रथः) सुन्दर वाहन (अस्ति) है उसकी विद्या को (धियन्धाः) बुद्धि अर्थात शिल्पविद्या रूप कर्म को धारण करनेवाला मैं (वाम्) आप दोनों को (प्र, अवोचम्) उत्तम उपदेश करूँ (येन) जिससे आप दोनों (हविष्मन्तम्) बहुत सामग्री से युक्त (तरणिम्) तारनेवाले (भोजम्) खाने योग्य पदार्थ और (रजांसि) लोक वा ऐश्वर्य्यों को (सद्यः) शीघ्र (अच्छ) उत्तम प्रकार (परि, याथः) सब ओर से प्राप्त होते हैं ॥७॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! विद्वान् हम लोग आप लोगों को जिन शिल्पविद्याओं का ग्रहण करावें, उन विद्याओं से आप लोग विमान आदि वाहनों को रच शीघ्र गमन और आगमन को करके बहुत भोगों को प्राप्त होओ ॥७॥ इस सूक्त में सूर्य और अग्नि के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥७॥ यह पैंतालीसवाँ सूक्त और इक्कीसवाँ वर्ग और चौथा अनुवाक समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे अश्विना ! यः स्वश्वोऽजरो रथोऽस्ति तद्विद्या धियन्धा अहं वां प्रावोचं येन युवां हविष्मन्तं तरणिं भोजं रजांसि सद्योऽच्छ परियाथः ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (वाम्) युवाम् (अवोचम्) उपदिशेयम् (अश्विना) अध्यापकोपदेशकौ (धियन्धाः) यो धियं प्रज्ञां शिल्पविद्यां कर्म दधाति (रथः) रमणीययानः (स्वश्वः) शोभनाश्वः (अजरः) (यः) (अस्ति) (येन) (सद्यः) शीघ्रम् (परि) (रजांसि) लोकानैश्वर्य्याणि वा (याथः) गच्छथः (हविष्मन्तम्) बहुसामग्रीयुक्तम् (तरणिम्) तारकम् (भोजम्) भोक्तुं योग्यम् (अच्छ) ॥७॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! विद्वांसो वयं युष्मान् याः शिल्पविद्या ग्राहयेम ताभिर्यूयं विमानादीनि यानानि निर्माय सद्यो गमनागमने कृत्वा पुष्कलान् भोगान् प्राप्नुतेति ॥७॥ अत्र सूर्याश्विगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥७॥ इति पञ्चचत्वारिंशत्तमं सूक्तमेकविंशो वर्गश्चतुर्थोऽनुवाकश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! आम्ही विद्वान तुम्हाला ज्या शिल्पविद्या शिकवितो, त्या विद्यांनी तुम्ही विमान इत्यादी याने तयार करून तात्काळ गमन व आगमन करून पुष्कळ भोग प्राप्त करा. ॥ ७ ॥