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सिन्धु॑र्ह वां र॒सया॑ सिञ्च॒दश्वा॑न्घृ॒णा वयो॑ऽरु॒षासः॒ परि॑ ग्मन्। तदू॒ षु वा॑मजि॒रं चे॑ति॒ यानं॒ येन॒ पती॒ भव॑थः सू॒र्यायाः॑ ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sindhur ha vāṁ rasayā siñcad aśvān ghṛṇā vayo ruṣāsaḥ pari gman | tad ū ṣu vām ajiraṁ ceti yānaṁ yena patī bhavathaḥ sūryāyāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सिन्धुः॑। ह॒। वा॒म्। र॒सया॑। सि॒ञ्च॒त्। अश्वा॑न्। घृ॒णा। वयः॑। अ॒रु॒षासः॑। परि॑। ग्म॒न्। तत्। ऊ॒म् इति॑। सु। वा॒म्। अ॒जि॒रम्। चे॒ति॒। यान॑म्। येन॑। पती॒ इति॑। भव॑थः। सू॒र्यायाः॑ ॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:43» मन्त्र:6 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:19» मन्त्र:6 | मण्डल:4» अनुवाक:4» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अध्यापक और उपदेशक जनो ! जो (सिन्धुः) नदी वा समुद्र (रसया) रस आदि से (उ) तो (वाम्) आप दोनों को (सिञ्चत्) सींचता है तथा (वयः) व्याप्त होनेवाले (घृणा) प्रदीप्त (अरुषासः) रक्त गुण से विशिष्ट पदार्थ (अश्वान्) शीघ्र चलनेवाले अग्न्यादिकों को (परि, ग्मन्) सब ओर से प्राप्त होते हैं (तत्) उनको और (वाम्) आप दोनों को वा (अजिरम्) प्राप्त होने योग्य और फेंकनेवाले को (सु चेति) उत्तम प्रकार जानता है वा (येन) जिससे (यानम्) वाहन को प्राप्त होकर (सूर्य्यायाः) सूर्य्य की कान्तिरूप प्रातःकाल के (पती) पालन करनेवाले (भवथः) होते हो, उन दोनों को (ह) निश्चय जानो ॥६॥
भावार्थभाषाः - हे अध्यापक और उपदेशक जनो ! आप जैसे उत्तम रस युक्त जल से वृक्षों और क्षेत्रादि को उत्तम प्रकार सिञ्चन कर और बढ़ाय के इन से फलों को प्राप्त होते हैं, वैसे ही सब मनुष्यों को पढ़ा उपदेश दे और बुद्धि से बढ़ाय कर सुखरूपी फलयुक्त होओ ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे अध्यापकोपदेशकौ ! यः सिन्धू रसयो वां सिञ्चद्वयो घृणाऽरुषासोऽश्वान् परि ग्मँस्तदु वामजिरं सु चेति येन यानं प्राप्य सूर्य्यायाः पती भवथस्तौ ह विजानीयाताम् ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सिन्धुः) नदी समुद्रो वा (ह) किल (वाम्) (रसया) रसादिना (सिञ्चत्) सिञ्चति (अश्वान्) सद्यो गामिनोऽग्न्यादीन् (घृणा) प्रदीप्ताः (वयः) व्यापिनः (अरुषासः) रक्तगुणविशिष्टाः (परि) (ग्मन्) गच्छन्ति (तत्) (उ) (सु) (वाम्) युवाम् (अजिरम्) प्राप्तव्यं प्रक्षेपकं वा (चेति) जानाति। अत्र विकरणस्य लुक् (यानम्) (येन) (पती) पालकौ (भवथः) (सूर्य्यायाः) सूर्य्यस्येयं कान्तिरुषास्तस्याः ॥६॥
भावार्थभाषाः - हे अध्यापकोपदेशकौ ! भवन्तौ यथा सुरसेन जलेन वृक्षान् क्षेत्रादिकं च संसिच्य वर्द्धयित्वैतेभ्यः फलानि प्राप्नुवन्ति तथैवं सर्वान् मनुष्यानध्याप्योपदिश्य प्रज्ञया वर्धयित्वा सुखफलौ भवेताम् ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे अध्यापक व उपदेशकांनो ! तुम्ही जसे उत्तम रसयुक्त जलाने वृक्ष व शेत इत्यादींना उत्तम प्रकारे सिंचन करून व वाढवून त्यांची फळे प्राप्त करता. तसेच सर्व माणसांना शिकवून, उपदेश करून, बुद्धी वाढवून सुखरूपी फळ प्राप्त करा. ॥ ६ ॥