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उ॒रु वां॒ रथः॒ परि॑ नक्षति॒ द्यामा यत्स॑मु॒द्राद॒भि वर्त॑ते वाम्। मध्वा॑ माध्वी॒ मधु॑ वां प्रुषाय॒न्यत्सीं॑ वां॒ पृक्षो॑ भु॒रज॑न्त प॒क्वाः ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uru vāṁ rathaḥ pari nakṣati dyām ā yat samudrād abhi vartate vām | madhvā mādhvī madhu vām pruṣāyan yat sīṁ vām pṛkṣo bhurajanta pakvāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒रु। वा॒म्। रथः॑। परि॑। न॒क्ष॒ति॒। द्याम्। आ। यत्। स॒मु॒द्रात्। अ॒भि। वर्त॑ते। वा॒म्। मध्वा॑। मा॒ध्वी॒ इति॑। मधु॑। वा॒म्। प्रु॒षा॒य॒न्। यत्। सी॒म्। वा॒म्। पृक्षः॑। भु॒रज॑न्त। प॒क्वाः ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:43» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:19» मन्त्र:5 | मण्डल:4» अनुवाक:4» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अध्यापक और उपदेशक जनो ! जो (वाम्) आप दोनों का (रथः) वाहन (द्याम्) आकाश को (उरु) बहुत (परि) सब ओर से (नक्षति) व्याप्त होता है (यत्) जो (वाम्) आप दोनों को (समुद्रात्) अन्तरिक्ष वा जलाशय से (अभि) सम्मुख (आ, वर्त्तते) वर्त्तमान होता है तथा (वाम्) आप दोनों और (माध्वी) मधुर नीति (मध्वा) मधुर गुण से (मधु) मधुरकर्म्म को (सीम्) सब ओर से (भुरजन्त) प्राप्त होती हैं और (यत्) जो (पृक्षः) सम्बन्धी जन (पक्वाः) पूर्ण ज्ञान से युक्त वा जिनका स्वरूप परिपक्व अर्थात् पूर्ण अवस्थावाले (वाम्) आप दोनों को (प्रुषायन्) प्राप्त होते हैं, उनको विद्वान् आप दोनों करें ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो आप लोगों को विद्वान् करें, उनकी निरन्तर सेवा करो ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे अध्यापकोपदेशकौ ! यो वां रथो द्यामुरु परि नक्षति यद्यो वां समुद्रादभ्या वर्त्तते वां माध्वी मध्वा मधु सीम्भुरजन्त यद्ये पृक्षः पक्वा वां प्रुषायँस्तान् विदुषो युवां सम्पादयेतम् ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उरु) बहु (वाम्) युवयोः (रथः) (परि) सर्वतः (नक्षति) व्याप्नोति (द्याम्) (आ) (यत्) यः (समुद्रात्) अन्तरिक्षाज्जलाशयाद्वा (अभि) आभिमुख्ये (वर्त्तते) (वाम्) युवाम् (मध्वा) मधुना (माध्वी) मधुरा नीतिः (मधु) (वाम्) युवाम् (प्रुषायन्) प्राप्नुवन्ति (यत्) ये (सीम्) सर्वतः (वाम्) युवाम् (पृक्षः) सम्बन्धिनः (भुरजन्त) प्राप्नुवन्ति (पक्वाः) परिपक्वज्ञानाः परिपक्वस्वरूपा वा ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! ये युष्मान् विदुषः कुर्य्युस्तान् सेवध्वम् ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जे तुम्हाला विद्वान करतात त्यांची निरंतर सेवा करा. ॥ ५ ॥