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अर्चा॑मि ते सुम॒तिं घोष्य॒र्वाक्सं ते॑ वा॒वाता॑ जरतामि॒यं गीः। स्वश्वा॑स्त्वा सु॒रथा॑ मर्जयेमा॒स्मे क्ष॒त्राणि॑ धारये॒रनु॒ द्यून् ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

arcāmi te sumatiṁ ghoṣy arvāk saṁ te vāvātā jaratām iyaṁ gīḥ | svaśvās tvā surathā marjayemāsme kṣatrāṇi dhārayer anu dyūn ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अर्चा॑मि। ते॒। सु॒ऽम॒तिम्। घोषि॑। अ॒र्वाक्। सम्। ते॒। व॒वाता॑। ज॒र॒ता॒म्। इ॒यम्। गीः। सु॒ऽअश्वाः॑। त्वा॒। सु॒ऽरथाः॑। म॒र्ज॒ये॒म॒। अ॒स्मे इति॑। क्ष॒त्राणि॑। धा॒र॒येः॒। अनु॑। द्यून्॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:4» मन्त्र:8 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:24» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! मैं (ते) आपके (सुमतिम्) श्रेष्ठ बुद्धिवाले सभासद् का (अर्चामि) सत्कार करता हूँ जिन (त्वा) आपकी (वावाता) दोषों को नाश करने और विद्या को उत्पन्न करनेवाली (इयम्) यह (गीः) उत्तम प्रकार शिक्षित वाणी (घोषि) शब्दयुक्त वचन जैसे हों, वैसे (सम्, जरताम्) स्तुति करे उन आपको (स्वश्वाः) उत्तम घोड़े (सुरथाः) श्रेष्ठ रथ और हम लोग (मर्जयेम) शुद्ध करावें। जैसे (ते) आपके धनों को (अनु, द्यून्) अनुदिन प्रतिदिन हम लोग धारण करें, वैसे आप (अर्वाक्) पीछे (अस्मे) हम लोगों के लिये (क्षत्राणि) राज्य में उत्पन्न हुए धनों को (धारयेः) धारण करिये ॥८॥
भावार्थभाषाः - जब राजा सभास्थ जनों को पूँछै कि इस अधिकार में कौन पुरुष रखने योग्य है, तब सम्पूर्ण जन धार्मिक योग्य पुरुष के नियत करने में सम्मति देवें। और राजा को भी चाहिये कि योग्य ही पुरुषों को राजकर्म में नियत करे, जिससे कि नित्य प्रशंसा बढ़े ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे राजन्नहं ते सुमतिमर्चामि यं त्वा वावातेयं गीर्घोषि सञ्जरतां तं त्वां स्वश्वाः सुरथा वयम्मर्जयेम। यथा ते धनान्यनुद्यून् वयं धारयेम तथार्वाक् त्वमस्मे क्षत्राण्यनुद्यून् धारयेः ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अर्चामि) सत्करोमि (ते) तव (सुमतिम्) शोभना मतिर्यस्य सभ्यस्य तम् (घोषि) शब्दयुक्तं वचः (अर्वाक्) पश्चात् (सम्) (ते) तव (वावाता) दोषहन्त्री विद्याजनयित्री (जरताम्) स्तुयात् (इयम्) (गीः) सुशिक्षिता वाणी (स्वश्वाः) शोभना अश्वाः (त्वा) त्वाम् (सुरथाः) श्रेष्ठरथाः (मर्जयेम) शोधयेम (अस्मे) अस्माकम् (क्षत्राणि) राज्योद्भवानि धनानि। क्षत्रमिति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१) (धारयेः) (अनु) (द्यून्) दिवसान् ॥८॥
भावार्थभाषाः - यदा राजा सभ्यान् पृच्छेदस्मिन्नधिकारे कः पुरुषो रक्षणीय इति तदा सर्वे धार्मिकस्य योग्यस्य रक्षणे सम्मतिं दद्युः। राज्ञा च योग्या एव पुरुषा राजकर्मणि रक्षणीया यतो नित्यं प्रशंसा वर्धेत ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जेव्हा राजा सभेच्या लोकांना विचारतो की, या अधिकारात कोणत्या पुरुषाला नेमावे? तेव्हा संपूर्ण लोकांनी धार्मिक योग्य पुरुषाला नियुक्त करण्याची संमती द्यावी व राजानेही योग्य पुरुषाला राजकर्मात नियुक्त करावे, ज्यामुळे नित्य प्रशंसा वाढेल. ॥ ८ ॥