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एकं॒ वि च॑क्र चम॒सं चतु॑र्वयं॒ निश्चर्म॑णो॒ गाम॑रिणीत धी॒तिभिः॑। अथा॑ दे॒वेष्व॑मृत॒त्वमा॑नश श्रु॒ष्टी वा॑जा ऋभव॒स्तद्व॑ उ॒क्थ्य॑म् ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ekaṁ vi cakra camasaṁ caturvayaṁ niś carmaṇo gām ariṇīta dhītibhiḥ | athā deveṣv amṛtatvam ānaśa śruṣṭī vājā ṛbhavas tad va ukthyam ||

पद पाठ

एक॑म्। वि। च॒क्र॒। च॒म॒सम्। चतुः॑ऽवयम्। निः। चर्म॑णः। गाम्। अ॒रि॒णी॒त॒। धी॒तिऽभिः॑। अथ॑। दे॒वेषु॑। अ॒मृ॒त॒ऽत्वम्। आ॒न॒श॒। श्रु॒ष्टी। वा॒जाः॒। ऋ॒भ॒वः॒। तत्। वः। उ॒क्थ्य॑म् ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:36» मन्त्र:4 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:7» मन्त्र:4 | मण्डल:4» अनुवाक:4» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वाजाः) ऐश्वर्य्य से युक्त (ऋभवः) बुद्धिमान् जनो ! (तत्) वह (वः) आप लोगों का (उक्थ्यम्) प्रशंसा करने योग्य कर्म कि जिससे आप लोग (श्रुष्टी) शीघ्र (धीतिभिः) अङ्गुलियों के सदृश विलेखनगतियों से (चर्मणः) त्वचा की (गाम्) भूमि को (अरिणीत) प्राप्त हूजिये (अथ) इसके अनन्तर इससे (देवेषु) विद्वानों में (अमृतत्वम्) मोक्षसुख को (आनश) प्राप्त हूजिये और जैसे (एकम्) सहायरहित अर्थात् अकेले (चमसम्) मेघों के सदृश विभक्त (चतुर्वयम्) चार हम लोग (वि, निः, चक्र) करें, वैसे आप लोग भी करो ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो प्रशंसित कर्मों को करते हैं, वे व्यावहारिक और पारमार्थिक सुख को प्राप्त होकर पण्डितवरों में प्रशंसा को प्राप्त होते हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे वाजा ऋभवस्तद्व उक्थ्यं कर्म येन यूयं श्रुष्टी धीतिभिश्चर्मणो गामरिणीत। अथैतेन देवेष्वमृतत्वमानश यथैकं चमसं चतुर्वयं विनिश्चक्र तथ यूयमपि कुरुत ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एकम्) असहायम् (वि) (चक्र) कुर्य्याम (चमसम्) मेघमिव विभक्तम् (चतुर्वयम्) चत्वारो वयम् (निः) नितराम् (चर्मणः) त्वचः (गाम्) पृथिवीम् (अरिणीत) प्राप्नुत (धीतिभिः) अङ्गुलिभिरिव विलेखनगतिभिः (अथ) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (देवेषु) विद्वत्सु (अमृतत्वम्) मोक्षसुखम् (आनश) प्राप्नुयुः (श्रुष्टी) क्षिप्रम् (वाजाः) विभवयुक्ताः (ऋभवः) विपश्चितः (तत्) (वः) युष्माकम् (उक्थ्यम्) प्रशंसनीयं कर्म ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये प्रशंसितानि कर्माणि कुर्वन्ति ते व्यावहारिकपारमार्थिकसुखं लब्ध्वा विपश्चिद्वरेषु प्रशंसां लभन्ते ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे प्रशंसित कर्म करतात ते व्यावहारिक व पारमार्थिक सुख प्राप्त करतात. विद्वानांमध्ये त्यांची प्रशंसा होते. ॥ ४ ॥