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प्रा॒तः सु॒तम॑पिबो हर्यश्व॒ माध्य॑न्दिनं॒ सव॑नं॒ केव॑लं ते। समृ॒भुभिः॑ पिबस्व रत्न॒धेभिः॒ सखीँ॒र्याँ इ॑न्द्र चकृ॒षे सु॑कृ॒त्या ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

prātaḥ sutam apibo haryaśva mādhyaṁdinaṁ savanaṁ kevalaṁ te | sam ṛbhubhiḥ pibasva ratnadhebhiḥ sakhīm̐r yām̐ indra cakṛṣe sukṛtyā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्रा॒तरिति॑। सु॒तम्। अ॒पि॒बः॒। ह॒रि॒ऽअ॒श्व॒। माध्य॑न्दिनम्। सव॑नम्। केव॑लम्। ते॒। सम्। ऋ॒भुऽभिः॑। पि॒ब॒स्व॒। र॒त्न॒ऽधेभिः॑। सखी॒न्। यान्। इ॒न्द्र॒। च॒कृ॒षे। सु॒ऽकृ॒त्या ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:35» मन्त्र:7 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:6» मन्त्र:2 | मण्डल:4» अनुवाक:4» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (हर्य्यश्व) उत्तम प्रकार चलने योग्य घोड़ों से युक्त (इन्द्र) ऐश्वर्य्य के देनेवाले राजन् ! आप (सुकृत्या) उत्तम धर्मयुक्त कर्म से (यान्) जिन (सखीन्) मित्रों को (चकृषे) करते हो और उन (रत्नधेभिः) धनों को धारण करनेवाले (ऋभुभिः) बुद्धिमानों के साथ (प्रातः) प्रातःकाल में (सुतम्) उत्पन्न दूध वा जल (माध्यन्दिनम्) तथा मध्य दिन में उत्पन्न भोजन आदि और (केवलम्) केवल (सवनम्) सम्पूर्ण संस्कारों के रसों से युक्त पीने योग्य पदार्थ का (अपिबः) पान करो (सम्, पिबस्व) अच्छे प्रकार आप पान करिये, इस प्रकार (ते) आप का निश्चय कल्याण होवे ॥७॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य विद्वानों के मित्र, सब के सुख चाहनेवाले, प्रातःकाल, मध्यकाल और सायंकाल में करने योग्य कर्मों को करके उत्तम कर्म करनेवाले होवें, ये सबके मित्र हुए भाग्यशाली होवें ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे हर्य्यश्वेन्द्र ! त्वं सुकृत्या यान् सखीञ्चकृषे तै रत्नधेभिर्ऋभुभिः सह प्रातः सुतं माध्यन्दिनं केवलं सवनमपिबः सम्पिबस्वैवं ते ध्रुवं ते कल्याणं भवेत् ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रातः) (सुतम्) निष्पन्नं दुग्धमुदकं वा (अपिबः) पिब (हर्य्यश्व) हर्याः कमनीया गमनीया अश्वा यस्य तत्सम्बुद्धौ (माध्यन्दिनम्) मध्ये दिने भवं भोजनादिकम् (सवनम्) सकलसंस्काररसोपेतम् (केवलम्) (ते) तव (सम्) (ऋभुभिः) मेधाविभिः सह (पिबस्व) (रत्नधेभिः) ये रत्नानि दधति तैः (सखीन्) सुहृदः (यान्) (इन्द्र) ऐश्वर्य्यप्रद राजन् (चकृषे) करोषि (सुकृत्या) शोभनेन धर्म्येण कर्मणा ॥७॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या विद्वन्मित्राः सर्वेषां सुखैषिणः प्रातर्मध्यसायं कर्त्तव्यानि कर्माण्यभिहरणानि च कृत्वा सुकर्मणो भवेयुस्ते सर्वमित्राः सन्तो भाग्यशालिनः स्युः ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे विद्वानांची मैत्री, सर्वांचे सुख इच्छिणारी, प्रातःकाल, मध्यकाल व सायंकाळी कर्तव्य करून उत्तम कर्म करणारी असतात, ती माणसे सर्वांचे मित्र असून भाग्यवान असतात. ॥ ७ ॥