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नापा॑भूत॒ न वो॑ऽतीतृषा॒मानिः॑शस्ता ऋभवो य॒ज्ञे अ॒स्मिन्। समिन्द्रे॑ण॒ मद॑थ॒ सं म॒रुद्भिः॒ सं राज॑भी रत्न॒धेया॑य देवाः ॥११॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nāpābhūta na vo tītṛṣāmāniḥśastā ṛbhavo yajñe asmin | sam indreṇa madatha sam marudbhiḥ saṁ rājabhī ratnadheyāya devāḥ ||

पद पाठ

न। अप॑। अ॒भू॒त॒। न। वः॒। अ॒ती॒तृ॒षा॒म॒। अनिः॑ऽशस्ताः। ऋ॒भ॒वः॒। य॒ज्ञे। अ॒स्मिन्। सम्। इन्द्रे॑ण। मद॑थ। सम्। म॒रुत्ऽभिः॑। सम्। राज॑ऽभिः। र॒त्न॒ऽधे॒या॑य। दे॒वाः॒ ॥११॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:34» मन्त्र:11 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:4» मन्त्र:6 | मण्डल:4» अनुवाक:4» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देवाः) विद्वान् और (ऋभवः) बुद्धिमानो ! (अनिःशस्ताः) निरन्तर प्रशंसा को प्राप्त आप लोग कहीं भी (न) नहीं (अप, अभूत) तिरस्कृत हूजिये और जैसे (अस्मिन्) इस (यज्ञे) राज्यपालन करने रूप यज्ञ में (वः) तुम लोगों को (न) नहीं (अतितृषाम) अतितृष्णा युक्त करें, वैसे इस में (इन्द्रेण) ऐश्वर्य्य के साथ (सम्, मदथ) आनन्द करो और (मरुद्भिः) उत्तम मनुष्यों के साथ (सम्) आनन्द करो और (राजभिः) राजा लोगों के साथ (रत्नधेयाय) जिसमें धन रक्खे जाते हैं उस कोश के लिये (सम्) आनन्द करो ॥११॥
भावार्थभाषाः - जो लोभ आदि दोषों से रहित हुए राजा और प्रजाजनों के साथ मिल कर गृहाश्रम के व्यवहार की उन्नति करते हैं, वे कहीं तिरस्कृत नहीं होते हैं ॥११॥ इस सूक्त में मेधावी के गुण वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥११॥ यह चौबीसवाँ सूक्त और चौथा वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे देवा ऋभवोऽनिःशस्ता यूयं क्वापि नापाभूत यथाऽस्मिन् यज्ञे वो नातितृषाम तथाऽत्रेन्द्रेण सह सम्मदथ मरुद्भिः सह सम्मदथ राजभिः सह रत्नधेयाय सम्मदथ ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (न) निषेधे (अप, अभूत) तिरस्कृता भवत (न) (वः) युष्मान् (अतितृषाम) अतिृतृष्णायुक्तान् कुर्य्याम। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (अनिःशस्ताः) निर्गतं शस्तं प्रशंसनं येभ्यस्तद्विरुद्धाः (ऋभवः) मेधाविनः (यज्ञे) राज्यपालनाख्ये (अस्मिन्) (सम्) (इन्द्रेण) ऐश्वर्य्येण (मदथ) आनन्दत (सम्) (मरुद्भिः) उत्तमैर्मनुष्यैः सह (सम्) (राजभिः) (रत्नधेयाय) रत्नानि धीयन्ते यस्मिन् कोषे तस्मै (देवाः) विद्वांसः ॥११॥
भावार्थभाषाः - ये लोभादिदोषरहिता राजप्रजाजनैः सह मिलित्वा गृहाश्रमव्यवहारमुन्नयन्ति ते क्वापि तिरस्कृता न भवन्ति ॥११॥ अत्र मेधाविगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥११॥ इति चतुस्त्रिंशत्तमं सूक्तं चतुर्थो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - भावार्थ -जे लोभ इत्यादी दोषांनी रहित असलेला राजा व प्रजा मिळून गृहस्थाश्रमाची उन्नती करतात ते कुठेही तिरस्कृत होत नाहीत. ॥ ११ ॥