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ज्ये॒ष्ठ आ॑ह चम॒सा द्वा क॒रेति॒ कनी॑या॒न्त्रीन्कृ॑णवा॒मेत्या॑ह। क॒नि॒ष्ठ आ॑ह च॒तुर॑स्क॒रेति॒ त्वष्ट॑ ऋभव॒स्तत्प॑नय॒द्वचो॑ वः ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

jyeṣṭha āha camasā dvā kareti kanīyān trīn kṛṇavāmety āha | kaniṣṭha āha caturas kareti tvaṣṭa ṛbhavas tat panayad vaco vaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ज्ये॒ष्ठः। आ॒ह॒। च॒म॒सा। द्वा। क॒र॒। इति॑। कनी॑यान्। त्रीन्। कृ॒ण॒वा॒म॒। इति॒। आ॒ह॒। क॒नि॒ष्ठः। आ॒ह॒। च॒तुरः॑। क॒र॒। इति॑। त्वष्टा॑। ऋ॒भ॒वः॒। तत्। प॒न॒य॒त्। वचः॑। वः॒ ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:33» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:1» मन्त्र:5 | मण्डल:4» अनुवाक:4» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब मनुष्यगुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (ऋभवः) बुद्धिमानो ! जिस (वः) आपके (वचः) वचन की (त्वष्टा) शिक्षा देनेवाला (पनयत्) प्रशंसा करे (तत्) वह वचन (द्वा) दो (चमसा) चमसों को (कर) करे (इति) इस प्रकार से (ज्येष्ठः) प्रथम उत्पन्न हुआ (आह) कहता है (कनीयान्) पीछे उत्पन्न हुआ छोटा (त्रीन्) तीन को (कृणवाम) करे (इति) इस प्रकार से (आह) कहता है और (कनिष्ठः) कनिष्ठ अर्थात् छोटा (चतुरः) चार को (कर) करे (इति) इस प्रकार से (आह) कहता है ॥५॥
भावार्थभाषाः - बन्धुजन विद्वान् होकर परस्पर वार्त्तालाप करें कि जैसे बड़ा आज्ञा करे, वैसे छोटा और जैसे छोटा कहे वैसा ही ज्येष्ठ आचरण करे। जैसे इस मन्त्र में (कनीयान्) यह कर्त्तृ पद एकवचनान्त और (कृणवाम) यह बहुवचनान्त क्रिया नहीं संगत होते हैं, ऐसा जनाना चाहिये अर्थात् अहं कर्त्ता की योग्यता में वयं कर्त्ता के पक्ष से योजना कर समझना चाहिये अथवा जैसे हम लोग परस्पर वार्त्तालाप करें, वैसे ही आप लोगों को भी परस्पर वार्त्तालाप करना चाहिये और जिस प्रकार सत्य और प्रशंसित वचन होवे, उसी प्रकार सब को बोलना चाहिये ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यगुणानाह ॥

अन्वय:

हे ऋभवो ! यद्वो वचस्त्वष्टा पनयत् तत् द्वा चमसा करेति ज्येष्ठ आह। कनीयाँस्त्रीन् कृणवामेत्याह कनिष्ठश्चतुरः करेत्याह ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ज्येष्ठः) पूर्वजः (आह) वदति (चमसा) चमसौ (द्वा) द्वौ (कर) कुर्य्याः (इति) अनेन प्रकारेण (कनीयान्) कनिष्ठः (त्रीन्) (कृणवाम) कुर्य्याम (इति) (आह) (कनिष्ठः) (आह) (चतुरः) (कर) (इति) (त्वष्टा) शिक्षकः (ऋभवः) मेधाविनः (तत्) (पनयत्) प्रशंसेत् (वचः) वचनम् (वः) युष्माकम् ॥५॥
भावार्थभाषाः - बन्धवो विद्वांसो भूत्वा परस्परं संवदेरन् यथा ज्येष्ठ आज्ञां कुर्यात् तथा कनिष्ठो यथा कनिष्ठो ब्रूयात्तथा ज्येष्ठ आचरेत् यथात्र कनीयानिति कर्त्तृपदमेकवचनान्तं कृणवामेति बहुवचनान्ता क्रिया न सङ्गच्छत इति सम्बोधनीयं यद्वा यथा वयं परस्परं संवदेमहि तथैव युष्माभिरपि परस्परं वक्तव्यं यथा सत्यं प्रशंसितव्यं वचनं स्यात्तथैव सर्वैर्वाच्यमिति ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - बंधूंनी विद्वान बनून परस्पर वार्तालाप करावा. मोठ्याने आज्ञा केली तर छोट्याने आज्ञा पाळावी व जसे छोटा म्हणतो तसे ज्येष्ठाने आचरण करावे. जसे या मंत्रात (कनीयान) हे कर्तृपद एकवचनान्त व (कृणवाम) ही बहुवचनांत क्रिया संगत नसल्यामुळे हे जाणावे. अहंकर्त्या ऐवजी वयंकर्ता ही योजना समजावी. जसे आम्ही परस्पर वार्तालाप करतो, तसे तुम्हीही परस्पर वार्तालाप करावा व ज्या प्रकारे सत्य व प्रशंसित वचन असेल त्याचप्रकारे सर्वांनी बोलले पाहिजे. ॥ ५ ॥