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भूरि॑दा॒ भूरि॑ देहि नो॒ मा द॒भ्रं भूर्या भ॑र। भूरि॒ घेदि॑न्द्र दित्ससि ॥२०॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

bhūridā bhūri dehi no mā dabhram bhūry ā bhara | bhūri ghed indra ditsasi ||

पद पाठ

भूरि॑ऽदाः। भूरि॑। दे॒हि॒। नः॒। मा। द॒भ्रम्। भूरि॑। आ। भ॒र॒। भूरि॑। घ॒। इत्। इ॒न्द्र॒। दि॒त्स॒सि॒ ॥२०॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:32» मन्त्र:20 | अष्टक:3» अध्याय:6» वर्ग:30» मन्त्र:4 | मण्डल:4» अनुवाक:3» मन्त्र:20


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) देनेवाले ! जो आप (नः) हम लोगों के लिये (भूरि) बहुत (दित्ससि) देने की इच्छा करते हो वह (भूरिदाः) बहुत देनेवाले आप हम लोगों के लिये (भूरि) बहुत (देहि) दीजिये और (भूरि) बहुत को (आ, भर) सब प्रकार धारण कीजिये (दभ्रम्) थोड़े को (घ) ही (मा) मत दीजिये और थोड़े को (इत्) ही न धारण कीजिये ॥२०॥
भावार्थभाषाः - जो बहुत देनेवाला है, वही प्रशंसा को प्राप्त होता है और जो थोड़ा देनेवाला, वह नहीं इस प्रकार प्रशंसित होता है ॥२०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! यस्त्वं नो भूरि दित्ससि स भूरिदास्त्वं नो भूरि देहि भूर्याभर दभ्रं घेन्मा देहि दभ्रमिन्माभर ॥२०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (भूरिदाः) बहुदाः (भूरि) बहु (देहि) (नः) अस्मभ्यम् (मा) (दभ्रम्) अल्पम् (भूरि) बहु (आ) (भर) समन्ताद्धर (भूरि) बहु (घ) एव (इत्) अपि (इन्द्र) दातः (दित्ससि) दातुमिच्छसि ॥२०॥
भावार्थभाषाः - यो बहुप्रदोऽस्ति स एव प्रशंसां लभते योऽल्पदः स नैवं प्रशंसितो भवति ॥२०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो दाता असतो त्याचीच प्रशंसा होते व जो कृपण असतो त्याची प्रशंसा होत नाही. ॥ २० ॥