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अ॒भी षु णः॒ सखी॑नामवि॒ता ज॑रितॄ॒णाम्। श॒तं भ॑वास्यू॒तिभिः॑ ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

abhī ṣu ṇaḥ sakhīnām avitā jaritṝṇām | śatam bhavāsy ūtibhiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒भि। सु। नः॒। सखी॑नाम्। अ॒वि॒ता। ज॒रि॒तॄ॒णाम्। श॒तम्। भ॒वा॒सि॒। ऊ॒तिऽभिः॑ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:31» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:6» वर्ग:24» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:3» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! जो आप (ऊतिभिः) रक्षणादिकों से (जरितॄणाम्) श्रेष्ठ विद्याओं के जाननेवाले (सखीनाम्) सब के मित्र (नः) हम लोगों के (शतम्) सैकड़े (भवासि) होते हो इससे (अभि) सम्मुख (सु) उत्तम प्रकार (अविता) रक्षक हूजिये ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य अपने आत्मा के सदृश सुख-दुःख, हानि और लाभ को औरों के भी जानकर दूसरे के प्रिय के लिये वर्त्ताव करें, उनमें अन्य जन भी मित्रता करें ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! यस्त्वमूतिभिर्जरितॄणां सखीनां नश्शतं भवासि तस्मादभि स्वविता भव ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अभि) आभिमुख्ये। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (सु) (नः) अस्माकम् (सखीनाम्) सर्वसुहृदाम् (अविता) रक्षकः (जरितॄणाम्) सद्विद्याविदाम् (शतम्) (भवासि) (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः ॥३॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्याः स्वात्मवत्सुखदुःखहानिलाभानन्येषामपि विज्ञाय परप्रियाय वर्त्तेरंस्तेष्वन्येऽपि मैत्रीं कुर्य्युः ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे आपल्या आत्म्याप्रमाणे इतरांचेही सुख-दुःख हानी-लाभ जाणतात व त्यांच्याशी प्रिय व्यवहार करतात त्यांच्याशी इतरांनीही मैत्री करावी. ॥ ३ ॥