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उ॒त शुष्ण॑स्य धृष्णु॒या प्र मृ॑क्षो अ॒भि वेद॑नम्। पुरो॒ यद॑स्य संपि॒णक् ॥१३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uta śuṣṇasya dhṛṣṇuyā pra mṛkṣo abhi vedanam | puro yad asya sampiṇak ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒त। शुष्ण॑स्य। धृ॒ष्णु॒ऽया। प्र। मृ॒क्षः॒। अ॒भि। वेद॑नम्। पुरः॑। यत्। अ॒स्य॒। स॒म्ऽपि॒णक् ॥१३॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:30» मन्त्र:13 | अष्टक:3» अध्याय:6» वर्ग:21» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:3» मन्त्र:13


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजसम्बन्ध से मनुष्य विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! (यत्) जिससे आप (शुष्णस्य) बलयुक्त सेना की (धृष्णुया) ढिठाई से (अस्य) इस शत्रु के (पुरः) नगरों को (प्र, मृक्षः) अच्छे प्रकार सींचो अत एव शत्रुओं को (सम्पिणक्) चूर्णित करो (उत) और भी (अभि, वेदनम्) विज्ञान को प्राप्त कराओ ॥१३॥
भावार्थभाषाः - वही राजा सम्मत होवे कि जो सेना को बढ़ाय और अन्याय के आचरणों को दूर करके बिन कहे को अच्छा जाननेवाला होवे ॥१३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजसम्बन्धेन मनुष्यविषयमाह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! यद्यतस्त्वं शुष्णस्य बलिष्ठस्य सैन्यस्य धृष्णुयाऽस्य पुरः प्र मृक्षोऽतः शत्रून् संपिणगुताप्यभिवेदनं प्रापय ॥१३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) अपि (शुष्णस्य) बलस्य (धृष्णुया) प्रगल्भत्वेन (प्र) (मृक्षः) सिञ्चय (अभि) (वेदनम्) विज्ञानम् (पुरः) नगराणि (यत्) यतः (अस्य) शत्रोः (संपिणक्) सञ्चूर्णय ॥१३॥
भावार्थभाषाः - स एव राजा सम्मतो भवेद्यः सेनां वर्द्धयित्वाऽन्यायाचारान्निवार्य्याऽविहिताज्ञो भवेत् ॥१३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो सेनेला वाढवितो व अन्यायाचे निवारण करून न सांगितलेल्या गोष्टीही जाणणारा असतो, त्याच राजाला मान्यता मिळते. ॥ १३ ॥