ए॒तद॑स्या॒ अनः॑ शये॒ सुसं॑पिष्टं॒ विपा॒श्या। स॒सार॑ सीं परा॒वतः॑ ॥११॥
etad asyā anaḥ śaye susampiṣṭaṁ vipāśy ā | sasāra sīm parāvataḥ ||
ए॒तत्। अ॒स्याः॒। अनः॑। श॒ये॒। सुऽस॑म्पिष्टम्। विऽपा॑शि। आ। स॒सार॑। सी॒म्। प॒रा॒ऽवतः॑ ॥११॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब सूर्य्यविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
[अथ] पुनः सूर्य्यविषयमाह ॥
हे विद्वन् ! यथा सीमादित्योऽस्या उषस एतत् सुसम्पिष्टमनो विपाशि परावत आ ससार यस्यामहं शये तथैतां त्वं विजानीहि ॥११॥