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ऋ॒तेन॑ ऋ॒तं निय॑तमीळ॒ आ गोरा॒मा सचा॒ मधु॑मत्प॒क्वम॑ग्ने। कृ॒ष्णा स॒ती रुश॑ता धा॒सिनै॒षा जाम॑र्येण॒ पय॑सा पीपाय ॥९॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ṛtena ṛtaṁ niyatam īḻa ā gor āmā sacā madhumat pakvam agne | kṛṣṇā satī ruśatā dhāsinaiṣā jāmaryeṇa payasā pīpāya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऋ॒तेन॑। ऋ॒तम्। निऽय॑तम्। ई॒ळे॒। आ। गोः। आ॒मा। सचा॑। मधु॑ऽमत्। प॒क्वम्। अ॒ग्ने॒। कृ॒ष्णा। स॒ती। रुश॑ता। धा॒सिना॑। ए॒षा। जाम॑र्येण। पय॑सा। पी॒पा॒य॒॥९॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:3» मन्त्र:9 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:21» मन्त्र:4 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब मनुष्य को ब्रह्मचर्य्य आदि से पुरुषार्थ सेवना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के सदृश प्रकाशमान विद्वान् पुरुष ! जिस प्रकार से मैं (गोः) पृथिवी वा वाणी के (ऋतेन) सत्य से (नियतम्) नियमयुक्त (ऋतम्) सत्य की (ईळे) स्तुति वा ढूँढ करता हूँ, वैसे आचरण करते हुए आप पृथिवी के मध्य में (सचा) प्रसङ्ग से (मधुमत्) श्रेष्ठ मधुर आदि गुणों से युक्त (आमा) कच्चे और (पक्वम्) पक्के पदार्थों की (आ, पीपाय) अच्छे प्रकार वृद्धि करो और जैसे (एषा) यह (कृष्णा) श्याम वर्ण (सती) सज्जन पण्डिता पतिव्रता स्त्री (रुशता) उत्तम स्वरूप से (जामर्येण) जीवन में निमित्त (पयसा) दुग्ध और (धासिना) अन्न से बढ़ती है, वैसे आप वृद्धि को प्राप्त होओ ॥९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य ब्रह्मचर्य से विद्या और उत्तम शिक्षा को प्राप्त होके और धर्मयुक्त व्यवहार से धर्म का अन्वेषण और इन्द्रियजित् होने से नियम से भोजन करनेवाले होकर पुरुषार्थ करते हैं, वे स्नेही स्त्री और पुरुष के सदृश आनन्दित होकर सब प्रकार वृद्धि को प्राप्त होते हैं ॥९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यैर्ब्रह्मचर्य्यादिना पुरुषार्थः संसेव्य इत्याह ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! विद्वन् यथाऽहं गोरृतेन नियतमृतमीळे तथाऽऽचरँस्त्वं पृथिव्या मध्ये सचा मधुमदामा पक्वं चापीपाय। यथैषा कृष्णा सती विदुषी पतिव्रता रुशता जामर्येण पयसा धासिना वर्धते तथा त्वं वर्धस्व ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ऋतेन) सत्येन (ऋतम्) सत्यम् (नियतम्) निश्चितम् (ईळे) स्तौम्यध्यन्विच्छामि (आ) (गोः) पृथिव्या वाण्या वा (आमा) अपरिपक्वम्। अत्र विभक्तेराकारादेशः (सचा) प्रसङ्गेन (मधुमत्) प्रशस्तमधुरादिगुणयुक्तम् (पक्वम्) (अग्ने) (कृष्णा) श्यामा (सती) (रुशता) सुस्वरूपेण (धासिना) अन्नेन (एषा) (जामर्येण) जामस्येदं जामं तदृच्छति येन तेन (पयसा) दुग्धेन (पीपाय) वर्द्धस्व ॥९॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या ब्रह्मचर्य्येण विद्यासुशिक्षे प्राप्य धर्म्येण व्यवहारेण धर्ममन्विष्य जितेन्द्रियत्वेन मिताऽऽहारा भूत्वा पुरुषार्थयन्ति ते हृद्यौ दम्पती इवाऽऽनन्दिता भूत्वा सर्वतो वर्धन्ते ॥९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे ब्रह्मचर्याने विद्या व सुशिक्षण प्राप्त करून धर्मयुक्त व्यवहाराने धर्माचे अन्वेषण करतात व जितेन्द्रिय, मिताहारी बनून पुरुषार्थ करतात ती प्रेमळ स्त्री-पुरुषाप्रमाणे आनंदित होऊन सर्व प्रकारे वृद्धी करतात. ॥ ९ ॥