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आ॒शृ॒ण्व॒ते अदृ॑पिताय॒ मन्म॑ नृ॒चक्ष॑से सुमृळी॒काय॑ वेधः। दे॒वाय॑ श॒स्तिम॒मृता॑य शंस॒ ग्रावे॑व॒ सोता॑ मधु॒षुद्यमी॒ळे ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

āśṛṇvate adṛpitāya manma nṛcakṣase sumṛḻīkāya vedhaḥ | devāya śastim amṛtāya śaṁsa grāveva sotā madhuṣud yam īḻe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ॒ऽशृ॒ण्व॒ते। अदृ॑पिताय। मन्म॑। नृ॒ऽचक्ष॑से। सुऽमृ॒ळी॒काय॑। वे॒धः॒। दे॒वाय॑। श॒स्तिम्। अ॒मृता॑य। शं॒स॒। ग्रावा॑ऽइव। सोता॑। म॒धु॒ऽसुत्। यम्। ई॒ळे॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:3» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:20» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वेधः) बुद्धिमान् राजन् ! (यम्) जिसकी मैं (ईळे) स्तुति करता हूँ (आशृण्वते) सब प्रकार सुनते हुए (अदृपिताय) मोहरहित (नृचक्षसे) सत्य और असत्य व्यवहारों को करते हुए जनों के साक्षात् देखने और (सुमृळीकाय) उत्तम प्रकार सुख देनेवाले, सुख और (अमृताय) जल के सदृश शान्तस्वरूप (देवाय) उत्तम गुणों से युक्त आपके लिये (मन्म) विज्ञान का मैं उपदेश देता हूँ, वैसे आप (ग्रावेव) मेघ के सदृश (मधुषुत्) मधुरताओं के उत्पन्न करनेवाले (सोता) अभिषेक करनेवाले हुए (शस्तिम्) प्रशंसा की (शंस) स्तुति कीजिये अर्थात् प्रबन्ध से कहिये ॥३॥
भावार्थभाषाः - वह ही राजा उत्तम होता है कि जो मोह आदि दोषों से रहित होकर सब वचनों का सुनने, सत्य और असत्य का देखने और मेघ के सदृश प्रजा में अनेक प्रकार का भोग प्राप्त करानेवाला न्यायाधीश होवे ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे वेधो राजन् ! यमहमीळ आशृण्वतेऽदृपिताय नृचक्षसे सुमृळीकायाऽमृताय देवाय ते मन्माहमुपदिशेय तथा त्वं ग्रावेव मधुषुत्सोता सञ्छस्तिं शंस ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आशृण्वते) समन्ताच्छ्रवणं कुर्वते (अदृपिताय) अमोहिताय (मन्म) विज्ञानम् (नृचक्षसे) सत्याऽसत्यकर्तॄणां जनानां साक्षाद्द्रष्ट्रे (सुमृळीकाय) सुसुखप्रदाय सुखस्वरूपाय (वेधः) मेधाविन् राजन् (देवाय) दिव्यगुणसम्पन्नाय (शस्तिम्) प्रशंसाम् (अमृताय) जलवच्छान्तस्वरूपाय (शंस) स्तुहि (ग्रावेव) मेघ इव (सोता) अभिषवस्य कर्त्ता (मधुषुत्) यो मधूनि मधुराणि सुनोति सः (यम्) (ईळे) स्तौमि ॥३॥
भावार्थभाषाः - स एव राजोत्तमो भवति यो मोहादिदोषरहितः सर्वेषां वचनानां श्रोता सत्याऽसत्ययोर्द्रष्टा मेघवत्प्रजायां विविधभोगप्रापको न्यायेशः स्यात् ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो मोह इत्यादी रहित, सर्वांचे बोलणे ऐकणारा श्रोता, सत्य व असत्य द्रष्टा व मेघवृष्टीप्रमाणे प्रजेला अनेक प्रकारचे भोग प्राप्त करवून देणारा न्यायाधीश असेल तर तोच राजा श्रेष्ठ असतो. ॥ ३ ॥