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ऋ॒तेन॑ दे॒वीर॒मृता॒ अमृ॑क्ता॒ अर्णो॑भि॒रापो॒ मधु॑मद्भिरग्ने। वा॒जी न सर्गे॑षु प्रस्तुभा॒नः प्र सद॒मित्स्रवि॑तवे दधन्युः ॥१२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ṛtena devīr amṛtā amṛktā arṇobhir āpo madhumadbhir agne | vājī na sargeṣu prastubhānaḥ pra sadam it sravitave dadhanyuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऋ॒तेन॑। दे॒वीः। अ॒मृताः॑। अमृ॑क्ताः। अर्णः॑ऽभिः। आपः॑। मधु॑मत्ऽभिः। अ॒ग्ने॒। वा॒जी। न। सर्गे॑षु। प्र॒ऽस्तु॒भा॒नः। प्र। सद॑म्। इत्। स्रवि॑तवे। द॒ध॒न्युः॒॥१२॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:3» मन्त्र:12 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:22» मन्त्र:2 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सङ्गदोष, अदोष और रक्षा विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्वान् पुरुष जैसे (ऋतेन) सत्य से (मधुमद्भिः) बहुत मधुर आदि गुणों से युक्त (अर्णोभिः) जलों के साथ (अमृक्ताः) नहीं शुद्ध किये गए (देवीः) उत्तम श्रेष्ठ (अमृताः) कारणरूप से नाशरहित (आपः) प्राणरूप पवन (स्रवितवे) जाने को (सदम्) प्राप्त वस्तु (प्र, दधन्युः) धारण करते हैं, वैसे (इत्) ही (सर्गेषु) किये हुए कार्य्यों में (वाजी) बहुत अन्नवाले के (न) सदृश (प्रस्तुभानः) अत्यन्त धारण करते हुए आप प्रकट हूजिये ॥१२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो ! जैसे शुद्ध जल सुखकारी और अशुद्ध दुःख देनेवाले होते हैं, वैसे ही उत्तम गुणों का सङ्ग आनन्ददायक और दोषों का सङ्ग दुःख देनेवाला होता है। और जैसे ऐश्वर्य्ययुक्त धार्मिकजन कृपा से बुभुक्षित आदि का पालन करता है, वैसे ही सज्जन लोग सब की रक्षा करते हैं ॥१२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सङ्गदोषादोषौ रक्षणविषयञ्चाह ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! यथर्त्तेन मधुमद्भिरर्णोभिस्सहाऽमृक्ता देवीरमृता आपो स्रवितवे सदं प्रदधन्युस्तथेदेव सर्गेषु वाजी न प्रस्तुभानः सँस्त्वं भव ॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ऋतेन) सत्येन (देवीः) दिव्याः (अमृताः) कारणरूपेण नाशरहिताः (अमृक्ताः) अशोधिताः (अर्णोभिः) जलैः (आपः) प्राणाः (मधुमद्भिः) बहुभिर्मधुरादिगुणयुक्तैः (अग्ने) विद्वन् (वाजी) बह्वन्नवान् (न) इव (सर्गेषु) सृष्टेषु कार्येषु (प्रस्तुभानः) प्रकर्षेण धरन् (प्र) (सदम्) प्राप्तं वस्तु (इत्) एव (स्रवितवे) स्रोतुं गन्तुम् (दधन्युः) धरन्त। अत्र वाच्छन्दसीति नुडागमो यासुडभावः ॥१२॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे मनुष्या ! यथा शुद्धा आपः सुखकारिण्योऽशुद्धा दुःखप्रदा भवन्ति तथैव शुभगुणसङ्ग आनन्दप्रदो दोषसङ्गो दुःखप्रदश्च भवति। यथैश्वर्यवान् धार्मिको जनः कृपया बुभुक्षितादीन् पालयति तथैव सज्जनाः सर्वान् रक्षन्ति ॥१२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमावाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. हे माणसांनो । जसे शुद्ध जल सुखदायक व अशुद्ध दुःखदायक असते, तसेच सद्गुणांचा संग आनंददायक व दोषांचा संग दुःखदायक असतो व जसे ऐश्वर्ययुक्त धार्मिक जन कृपा करतात व भुकेल्या माणसांचे पालन करतात, तसेच सज्जन लोक सर्वांचे रक्षण करतात. ॥ १२ ॥