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ऋ॒तेन॒ हि ष्मा॑ वृष॒भश्चि॑द॒क्तः पुमाँ॑ अ॒ग्निः पय॑सा पृ॒ष्ठ्ये॑न। अस्प॑न्दमानो अचरद्वयो॒धा वृषा॑ शु॒क्रं दु॑दुहे॒ पृश्नि॒रूधः॑ ॥१०॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ṛtena hi ṣmā vṛṣabhaś cid aktaḥ pumām̐ agniḥ payasā pṛṣṭhyena | aspandamāno acarad vayodhā vṛṣā śukraṁ duduhe pṛśnir ūdhaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऋ॒तेन॑। हि। स्म॒। वृ॒ष॒भः। चि॒त्। अ॒क्तः। पुमा॑न्। अ॒ग्निः। पय॑सा। पृ॒ष्ठ्ये॑न। अस्प॑न्दमानः। अ॒च॒र॒त्। व॒यः॒ऽधाः। वृषा॑। शु॒क्रम्। दु॒दु॒हे॒। पृश्निः॑। ऊधः॑॥१०॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:3» मन्त्र:10 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:21» मन्त्र:5 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी पुरुषार्थ कर्त्तव्यता को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! (हि) जिससे कि आप (ऋतेन) सत्य व्यवहार से (वृषभः) बलिष्ठ (अक्तः) उत्तम गुणों से युक्त (पयसा) रात्रि के साथ (अग्निः) अग्नि के समान (पृष्ठ्येन) पृष्ठ भाग में होनेवाले दिन में (पुमान्) पुरुषार्थी (अस्पन्दमानः) किञ्चित् चले हुए (वयोधाः) सुन्दर अवस्था जीवन और धनादिकों के धारण करने (वृषा) सुखों की वृष्टि करनेवाले होते हुए (अचरत्) विचरते हैं (पृश्निः) अन्तरिक्ष (ऊधः) और रात्रि के सदृश (चित्) सो भी (शुक्रम्) वीर्य्य को (स्म) ही (दुदुहे) पूरा करते हैं ॥१०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे पृथिवी के अर्द्धभाग में बिजुली सूर्य रूप से शोभित होती है और दूसरे भाग में रात्रि के समय छिपी हुई चलती है, वैसे ही शयन और जागरण नियम से कर और पुरुषार्थ करके वीर्य बढ़ाय के सौ वर्ष की अवस्थायुक्त हुए सब को आनन्द दीजिये ॥१०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः पुरुषार्थकर्त्तव्यतामाह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! हि यतो भवान् ऋतेन वृषभोऽक्तः पयसाऽग्निरिव पृष्ठ्येन पुमानस्पन्दमानो वयोधा वृषा सन्नचरत् पृश्निरूधरिव स चिच्छुक्रं स्म दुदुहे ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ऋतेन) सत्येन व्यवहारेण (हि) यतः (स्म) एव (वृषभः) बलिष्ठः (चित्) अपि (अक्तः) शुभगुणैर्युक्तः (पुमान्) पुरुषार्थी (अग्निः) विद्युदिव (पयसा) रात्र्या (पृष्ठ्येन) पृष्ठे भवेन दिनेन (अस्पन्दमानः) किञ्चिच्चलितस्सन् (अचरत्) चरति (वयोधाः) यः कमनीयानि वयांसि जीवनधनादीनि दधाति सः (वृषा) सुखानां वर्षकः (शुक्रम्) वीर्य्यम् (दुदुहे) पिपर्त्ति (पृश्निः) अन्तरिक्षम् (ऊधः) रात्रिरिव ॥१०॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा पृथिव्या अर्द्धे भागे विद्युत् सूर्य्यरूपेण विराजतेऽपरे भागे रात्रावप्यन्तर्हिता चरति तथैव शयनजागरणे नियमेन विधाय पुरुषार्थे कृत्वा वीर्य्यं वर्धयित्वा शतायुषस्सन्तः सर्वानानन्दयत ॥१०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जशी पृथ्वीच्या अर्ध्या भागात विद्युत सूर्यरूपाने शोभित होते व दुसऱ्या भागात रात्रीच्या वेळी अन्तर्हित असते. तसेच शयन व जागरणाचे नियम करून पुरुषार्थाने वीर्य वाढवून शतायुषी होऊन सर्वांना आनंद द्या. ॥ १० ॥